जब कुछ नहीं बचता तो एक बहुत ही मज़ेदार दलील सुनने को मिलती है, 'ईश्वर को महसूस करो, जो महसूस करता है उसीको महसूस होता है।' पहली बात तो यह कि जब सब कुछ वही करता है तो यह महसूस करने का लफ़ड़ा हमारे सर क्यों!? वही करवाएगा ख़ुदको महसूस। दूसरी हास्यास्पद बात यह है कि इनमें बहुत सारे लोग ऐसे होते हैं जिन्होंने कभी अपने आस-पास के इंसानों को महसूस नहीं किया और कथित ईश्वर को महसूस करने-करवाने का ठेका लिए बैठे हैं। इन्होंने कभी फुटपाथों पर पानी के लिए तरसते बच्चों को महसूस नहीं किया और टनों दूध पत्थरों पर उड़ेल आए। इनमें से कई अपने साथ उठती-बैठती औरतों को न महसूस कर सके, उन्हें आग़ में ज़िंदा फ़ेंक-फ़ेंक कर सती कर दिया। उन्हें महसूस करने को भारत में अंग्रेज बुलवाने पड़ गए। कईयों ने अपने ही जैसे इंसानों को नीचा बता दिया और उनसे वहशियाना सुलूक करते रहे। आज भी छोड़ने को तैयार नहीं।
आदमी के लिए जिसकी महसूसिंद्रियों का अता-पता न चलता हो कि किधर गयी, वो और किसे महसूस करेगा!?
कैसा भद्दा मज़ाक़ है!
उसी मज़ाक़ का विस्तार है ईश्वर के नाम पर कुछ मान्यताओं को हवा देना, कुछ नयी मान्यताएं बनाना। ये समय-असमय घोषणाएं करते फिरते हैं कि 'ईश्वर की लाठी में आवाज़ नहीं होती', ' वह एक दिन अपनी शक्ति दिखा देता है'.....और पता नहीं क्या-क्या अल्लम-गल्लम। पूछो, तुम्हे इतनी गारंटी कैसे है कि ईश्वर यह-यह करता है! क्या उसने तुम्हे कोई टाइम टेबल दे रखा है! हंसी यह देखकर छूटती है कि ये लोग इन ‘महसूसियात’ को कुछ इस तरह बताते हैं जैसे ईश्वर अपने सारे मामले इन्हें अपने साथ डायनिंग टेबल पर बिठाकर डिस्कस करता हो। सुबह-शाम फ़ोन करके हाले-दिल बताता हो कि ‘यार, तुम्हारी कॉलोनी के टी ब्लॉक के 1355 डी के फ़र्स्ट फ्लोर वाला आदमी मेरी पूजा नहीं करता। आज शाम साढ़े पांच बजे ट्रक भेजकर चौराहे पर ही साले की टांगे तुड़वाने वाला हूं।' वैसे आप ध्यान दे तो पायेंगे कि ऐसी हरकतें हिंदी फ़िल्मों के विलेन या तथाकथित प्रतिष्ठाओं के मालिक अहंकारी, थोथे और बनावटी विद्वान ही ज़्यादा करते हैं।
और भी कुछ लिखना चाहता था कि एकाएक हंसी छूटना शुरु हो गयी। पहले हंस ही लेता हूं।
-संजय ग्रोवर
12 मई, 2013
(अपने फ़ेसबुक-ग्रुप ‘नास्तिकThe Atheist’ से)
आदमी के लिए जिसकी महसूसिंद्रियों का अता-पता न चलता हो कि किधर गयी, वो और किसे महसूस करेगा!?
कैसा भद्दा मज़ाक़ है!
उसी मज़ाक़ का विस्तार है ईश्वर के नाम पर कुछ मान्यताओं को हवा देना, कुछ नयी मान्यताएं बनाना। ये समय-असमय घोषणाएं करते फिरते हैं कि 'ईश्वर की लाठी में आवाज़ नहीं होती', ' वह एक दिन अपनी शक्ति दिखा देता है'.....और पता नहीं क्या-क्या अल्लम-गल्लम। पूछो, तुम्हे इतनी गारंटी कैसे है कि ईश्वर यह-यह करता है! क्या उसने तुम्हे कोई टाइम टेबल दे रखा है! हंसी यह देखकर छूटती है कि ये लोग इन ‘महसूसियात’ को कुछ इस तरह बताते हैं जैसे ईश्वर अपने सारे मामले इन्हें अपने साथ डायनिंग टेबल पर बिठाकर डिस्कस करता हो। सुबह-शाम फ़ोन करके हाले-दिल बताता हो कि ‘यार, तुम्हारी कॉलोनी के टी ब्लॉक के 1355 डी के फ़र्स्ट फ्लोर वाला आदमी मेरी पूजा नहीं करता। आज शाम साढ़े पांच बजे ट्रक भेजकर चौराहे पर ही साले की टांगे तुड़वाने वाला हूं।' वैसे आप ध्यान दे तो पायेंगे कि ऐसी हरकतें हिंदी फ़िल्मों के विलेन या तथाकथित प्रतिष्ठाओं के मालिक अहंकारी, थोथे और बनावटी विद्वान ही ज़्यादा करते हैं।
और भी कुछ लिखना चाहता था कि एकाएक हंसी छूटना शुरु हो गयी। पहले हंस ही लेता हूं।
-संजय ग्रोवर
12 मई, 2013
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