जब किसी पर कोई मुसीबत आती है, उसका भारी नुक़सान हो जाता है तो वह भगवान को और ज़्यादा मानने लगता है, ज़्यादा प्रार्थना करने लगता है, यहां तक कि कई बार तो न माननेवाले भी मानना शुरु कर देते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि ‘जिस भगवान ने इतने पूजापाठ, दानदक्षिणा के बावज़ूद हमारा सब तबाह कर दिया, वो कैसा भगवान है, वो कर क्या रहा है, उसके बस का कुछ है भी या नहीं!? वो है किसकी तरफ़? अगर है तो दुनिया में बलात्कार होते ही क्यों हैं ? भूकम्प आते ही क्यों हैं ? जो ख़ुद ही सुनामी भेज रहा है, उसीसे उसे रोकने की प्रार्थना करना क्या बेवक़ूफ़ी नहीं है? अगर वह है तो कुछ करता क्यों नहीं, सामने क्यों नहीं आता ? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह है ही नहीं, वह हमारे मन का एक वहम है, वह महास्वार्थी, अहंकारी लोगों की फैलाई एक अफ़वाह है !?’
मगर इसका उल्टा होता है तो उसकी कोई वजह तो होगी। दो-चार वजह जो मुझे समझ में आतीं हैं, लिख रहा हूं। आप भी लिख सकते हैं-
1. बचपन में संस्कारों के नाम पर बच्चे के मन में तरह-तरह के डर बिठा देना। मैंने ख़ूब देखा है कि डरे हुए लोग सोचने लायक रह ही नहीं जाते। उनकी अपनी कोई सोच होती ही नहीं। दूसरों द्वारा सिखाई-बताई-पढ़वाई बातों को वो अपना चिंतन समझते आए होते हैं। उनकी ज़िंदगी रटे हुए संस्कारों पर इस तरह चलती है जैसे बिछी-बिछाई पटरियों पर रेल चलती है। अब रेल अगर यह समझने लगे कि वह अपनी मर्ज़ी से चल रही है और अपनी पसंद से अपने स्टेशन तय कर रही है तो इस ग़लतफ़हमी को दूर करना आसान नहीं है।
2. जिस व्यक्ति ने भगवान जैसी बेसिर-पैर की कल्पना को बिना किसी संदेह, बिना किसी प्रश्न, बिना किसी अनुभव, बिना किसी साक्ष्य, बिना किसी मुलाक़ात के स्वीकार कर लिया हो वह किसी भी झूठ को स्वीकार कर सकता है। उसे कोई भी, कभी भी, कहीं भी ठग सकता है। भगवान नाम के झूठ के सहारे ठग अपनी ठगी के लिए जनमानस में माहौल तैयार करते हैं, भूमिका बनाते हैं।
3. पिछड़े हुए देशों में प्रगतिशीलता की स्थिति शर्मनाक़ है। हिंदी फ़िल्मजगत में स्वतंत्रता के कई साल बाद तक तथाकथित प्रगतिशीलता का बोलबाला रहा। मगर उन तथाकथित प्रगतिशीलों ने कभी भी कोई फ़िल्म नास्तिकता पर नहीं बनाई, न ही कोई गीत नास्तिकता पर लिखा। हां, नास्तिकता को बदनाम करने के लिए इन्होंने गीत भी लिखे और फ़िल्में भी बनाईं। वह काम आज भी हो रहा है।
4. चालू लोगों ने मूर्तिपूजा के विरोध के नाम पर निराकार भगवान नाम का एक नया शोशा खड़ा कर दिया। और वे इस नई बेईमानी पर खड़े होकर प्रगतिशीलों में प्रगतिशील बन गए और परंपरावादियों में परंपरावादी। इनकी मूर्खता का अंदाज़ा आप इसीसे लगा सकते हैं कि इन्होंने प्रगतिशीलता तक के लिए परंपरा को अनिवार्य कर दिया। इन बेईमानों और निकम्मों ने चीज़ों को आपस में इतना गड्ढ-मड्ढ किया कि सही और ग़लत, तार्किक और अतार्किक का पता लगाना मुश्क़िल हो गया। इनकी बेशर्मी का आलम यह है कि जो भी इन्हें इनकी विचित्र मानसिकता का पता बताता है ये उसे किसी कट्टर सांप्रदायिक संगठन से जुड़ा बताना शुरु कर देते हैं, इन विद्वानों के पास ले-देकर यही एक ‘तर्क’ बच गया है। जबकि ऐसे लोग आपने भी ख़ूब देखे होंगे जो पैसे, प्रतिष्ठा, पुरस्कार, पब्लिसिटी के लालच में ख़ुद किसीके भी अंगने में जाकर पसर जाते हैं।
5. जब तक लोग यह नहीं समझेंगे कि निराकार वाले साकार वालों से ज़्यादा शातिर और बेईमान हैं, तब तक आगे का रास्ता साफ़ नहीं हो सकता। हमें यह समझना पड़ेगा कि सिर्फ़ सामने से छुरा दिखानेवाला लुटेरा नहीं होता बल्कि छुरे का भय दिखाकर उससे बचाने के नाम पर, उसके विरोध के नाम पर हवाई क़रतब करके पैसे मूंडनेवाले भी उतने ही या उससे भी ज़्यादा मूर्ख, बेईमान, पाखंडी, निकम्मे, पोंगे या चालबाज़ होते हैं। हमें यह समझना पड़ेगा कि बेईमानी को अगर ईश्वर, धर्म, मूर्ति और कर्मकांडों की ओट में जस्टीफ़ाई नहीं किया जाना चाहिए तो उसे प्रगतिशीलता, सफ़लता, पुरस्कार, नास्तिकता, हैसियत, लाइमलाइट, मंज़िल आदि-आदि के नाम पर भी क्यों छुपे रहने देना चाहिए!? इन पोंगों ने तो सफ़लता, प्रतिष्ठा और पुरस्कार को भी तथाकथित भगवान के समकक्ष खड़ा कर दिया है, सफ़ल(!) लोगों को ये भगवान की तरह पूजते हैं, कोई उनके बारे में चूं भी करे तो ये डंडा लेकर खड़े हो जाते हैं।
और यही अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता और समानता के पक्षधर भी बने बैठे हैं।
29-04-2015
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