Saturday 16 March 2019

पाखंड की विविधता-1,2

सलीम उस लड़के का नाम था जिसने मुझसे कहा कि ‘पैसे की तो कोई बात नहीं, आपकी जींस पर दो सुईयां टूट गईं हैं, उनके दो रुपए दे दो’। मुझे बात बहुत अच्छी लगी। जींस बहुत मोटे कपड़े की थी। सलीम उस वक़्त लड़का-सा ही था। छोटी-सी दुकान में दो मशीन लेकर बैठता था। उससे दोस्ती हो गई। फ़ैशन-डिज़ाइनिंग का शौक़ भी शुरु ही हुआ था। मैं अपने जानकारों-दोस्तों को वहीं ले जाने लगा। मैं स्केच बनाता और सलीम कमोबेश वैसा ही सिल देता। धीरे-धीरे अच्छी ट्यूनिंग हो गई। मैं और सलीम दोनों ही स्थानीय स्तर पर ख़ासे प्रसिद्ध हो गए। याद आता है कि सलीम ने मेरी फ़रमाइश पर दो बार ईद की दावत पर मुझे मेरे दोस्तों समेत बुलाया। इफ़्तार शब्द उस वक़्त मेरी जानकारी में नहीं आया था। न ही मुझे ये मालूम था कि ऐसी घटनाओं के फ़ोटो खींच लेने चाहिए ताकि वक़्त पड़ने पर इस्तेमाल किए जा सकें। बाद में हमारी अनबन हो गई। मैं चाहता था कि वो एक लेबल मेरे नाम का भी बनवाए और उसे मेरे डिज़ाइन किए हुए कपड़ों पर लगाए। सलीम को मेरी वजह से बहुत फ़ायदा होता था और मुझे पढ़ा-लिखा होते हुए भी फ़ालतू घूमने का तमग़ा मिल जाता था। लेकिन, सलीम की हिचक भी समझ में आती है, वह मुझे क्रेडिट देता तो उसकी दुकान पर असर पड़ सकता था। बाद में एक नया ख़तरा उठाते हुए मैंने अपनी दुकान खोल ली। बल्कि मैंने दो ख़तरे उठाए-एक तो क़रीबियों को नाराज़ करते हुए तथाकथित छोटा काम कर लिया, दूसरे, कटिंग-टेलरिंग न आते हुए भी मामूली पूंजी के साथ काम शुरु कर दिया। दुकान अच्छी चल गई लेकिन एक तो मैं पैसे वसूलने, कारीगरों से काम कराने के मामले में दूसरों की तरह क्रूर नहीं था (अभी भी नहीं हूं), दूसरे, काम के तकनीक़ी पक्ष में कमज़ोर था, तीसरे, लल्लो-चप्पो, छल-कपट, अभिनय आदि मेरे स्वभाव में नहीं हैं सो अंततः दुकान बंद करनी पड़ी। उस वक़्त भी मैंने एक माकेट के ऊपर खाली पड़ी दुकानों में से सबसे पीछे की दुकान लेने का साहस किया था और अच्छा-खासा चला भी लिया था। बाद में सलीम ने भी वहीं दुकान ले ली थी। बाद में ऊपर का तक़रीबन आधा मार्केट दर्ज़ियों से भर गया। ख़ैर, मैं दुकान बंद करके दूसरी चीज़ों में लग गया। उसके बाद वक़्त खिसकने लगा। अंततः मैंने सलीम के बारे में पता करना छोड़ दिया। मुझे नहीं पता कि आजकल वो कहां है।

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इसी दौरान हमारे पड़ोस में दो डॉक्टर रहने लगे थे। एक हिंदू, एक मुस्लिम-दोनों लगभग युवा। हिंदू से तो थे ही, मुस्लिम से भी खाने-पीने, आने-जाने के जैसे संबंध हमारे परिवार के थे, वैसे मोहल्ले में किसीके नहीं थे। हालांकि मेरे उनसे कोई क़ाबिले-ज़िक़्र ताल्लुक़ात नहीं थे। पर मुझे अच्छा लगता था कि वे दोनों छोटे-से किराए के मकान में साथ-साथ रहते थे। ऐसा अब तक मैंने सिर्फ़ फ़िल्मों में देखा था या कहानियों में पढ़ा था। उनमें से एक तो इतना भला था कि कई बार ग़रीब मरीज़ों के पैसे छोड़ देता था। दूसरे कुछ भी कहें पर मेरी नज़र में इंसानियत के लिहाज़ से यह उस बंदे का प्लस-प्वॉइंट था। पॉज़ीटिव थिंकिंग।

फिर दिल्ली में मुझे हसनैन मिले-हसनैन रज़ा। हसनैन उस समय एक प्रॉपर्टी डीलर ऑफ़िस में बैठते थे। वे अकसर फ़ोन करके मुझे बुला लेते थे। मैं भी किसी वजह से उस वक़्त ख़ाली घूमता था। अच्छी छनने लगी। हसनैन के साथ वक़्त अच्छा बीत जाता था। कभी-कभी हसनैन मेरे लिए अपने हाथों से बनाया खाना लेकर आते थे। वे जिस भाव से लाते थे, देते थे, उसमें मुझे इंसानियत की एक अलग ही गंध महसूस होती थी। मैं भी उस वक़्त कुछ बनाना-करना जानता नहीं था, संकोची था, दिलशाद गार्डन में ढाबे वगैरह भी मेरी पसंद के थे नहीं, सो उस खाने को उपहार और प्रेम समझकर ग्रहण कर लेता था। एक दो-दिन मुझे चीनी के सफ़ेद बर्तन में खाना कुछ अजीब-सा लगा फिर आदत हो गई। साधारण आर्थिक स्थिति में भी हसनैन अपने घर और अपने कपड़ों की जैसी सफ़ाई रखते थे, मैं काफ़ी प्रभावित होता था। 

मेरे पिताजी की मृत्यु के समय हसनैन ने कहा कि मैं भी शॉल चढ़ाना चाहता हूं, कोई ऐतराज़ तो नहीं करेगा। मैंने कहा कि ऐसा तो कोई यहां है नहीं। मुझे याद है कि उस वक़्त मैंने हसनैन से कही थी कि मेरा-तुम्हारा कभी झगड़ा हुआ भी तो किसी दूसरे मसले पर हो सकता है, हिंदू-मुसलमान के मसले पर नहीं हो सकता। मैं रीति-रिवाज, कर्मकांड को नहीं मानता मगर दूसरे करना चाहें तो रोकता भी नहीं। मैं इस तरह की चीज़ों में मन से शामिल नहीं हो पाता।

हसनैन बीच-बीच में दो-चार साल के लिए ग़ायब भी हो जाते हैं, पर किसी न किसी तरह से बीच-बीच में संपर्क बना भी लेते हैं। आजकल फ़ेसबुक पर बने हुए हैं।

जब मेरे एक पड़ोसी मेरे मना करने के बावजूद अपनी अवैद्य बालकनी बना रहे थे और इसका ज़िक़्र मैंने फ़ेसबुक पर किया तो सबसे ज़्यादा फ़ोन मेरे पास सैयद ख़ालिद महफ़ूज़ के आए। मैं उन्हें पहले से नहीं जानता था मगर उन्होंने जिस तरह बार-बार अनुरोध किया, मैं उनसे मिलने को उत्सुक हो गया। पुलिस के मामले में कुछ मदद मेरी शफ़ीक़ ने की थी। बालकनी जितनी बनी थी उतने तक रुक गई थी। सैयद ख़ालिद महफ़ूज़ के बार-बार अनुरोध पर मैंने झिझकते हुए कहा कि घर बहुत गंदा पड़ा है, इसमें आप कुछ मदद कर सकें तो कर दें। मेरी तबियत उस समय बहुत ज़्यादा ख़राब थी। सैयद सफ़ाई के लिए 4-5 बार आए। काफ़ी मेहनत भी उन्होंने की। एक बार तो रसोई के छोटे-छोटे प्लास्टिक और स्टील के बर्तन जिस लगन और करीने से साफ़ किए कि मैं थोड़ा हैरान भी हो गया। सफ़ाई के दौरान एक दिन तो उन्होंने मेरे नहाने का पानी गर्म करनेवाले पतीले में चावल(संभवत लिट्टी-चोखा) बना दिए। उस दिन मैंने, लगभग तीन-चार साल के बाद एक पुरानी बची वोदका की बोतल भी निकाल ली थी। महफ़ूज़ ने पीछेवाला कमरा लगभग पूरा साफ़ कर दिया था, रात के एक-दो बजे हम पंखा चलाकर चटाई-वटाई बिछाकर बैठ गए। उस दिन भी मैं शायद कई महीने बाद नहाया था। सैयद की भावना देखते हुए मैंने चावल, भी खाए और उबले अंडे और कच्चा पनीर भी मंगाकर खाए। अंजुले कुछ-कुछ पंडितों की तरह व्यवहार करता लगा। महफ़ूज़ ने भी दारु पी या नहीं पी, पी तो कितनी पी, मैंने नहीं देखा। अंजुले शाम को कहीं चला गया था, महफ़ूज़ से पूछा तो पता चला कि गुटखा खाने गया है। मैंने कहा कि मेरे सामने ही खा लेता, मुझे तो कोई दिक्क़त नहीं थी। ख़ैर, महफ़ूज़ के व्यवहार में मुझे यह अच्छा लगा कि मैंने उन्हें जो भी देना चाहा, उन्होंने पसंद और ज़रुरत के हिसाब से ले लिया। जहां तक मुझे मालूम है उन्होंने फ़ेसबुक पर इस बात का कभी ज़िक़्र भी नहीं किया कि उन्होंने मेरा कोई काम/अहसान किया। मैं इस बात का क़ायल हूं कि आप किसीका कोई काम करें और बदला चाहें तो सीधे और तुरंत मांग या ले लेना चाहिए बजाय इसके कि पहले आप ख़ुदको सामाजिक/मसीहा की तरह पेश करें बाद में बदला भी चाहें और बदला भी ऐसा कि दूसरे के लिए मुश्क़िल या असंभव हो जाए। 

इन सब घटनाओं और संबंधों का ज़िर्क़ मैंने एक विशेष संदर्भ में किया है। इन सब संबंधों में किसी-गंगा जमुनी संस्कृति या धर्मनिरपेक्षता का हाथ नहीं था, मेरे लिए यह मेरे सहज स्वभाव का परिणाम था, ठीक वैसे ही जैसे मेरी नास्तिकता और उदारता का किसी पार्टी या विचारधारा से कोई संबंध नहीं था, नहीं है।   

इन्हीं सब बातों को मैं इस लेख के अगले हिस्से में स्पष्ट करुंगा।

(जारी)

-संजय ग्रोवर
16-03-2019

अब सवाल यह है कि मैंने इन सभी लोगों(मुस्लिमों-हालांकि किसी दोस्त/इंसान को मैं हिंदू, मुसलमान, क्रिश्चियन कहकर परिचित कराऊं, मुझे थोड़ा शर्मनाक़ ही लगता है) से मित्रता क्या किसी योजना के तहत की थी, किसी सिद्धांत के डर से की थी, किसी कोर्स को पढ़कर की थी!? बिलकुल भी नहीं। क्या आपने किन्हीं स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में ऐसे चैप्टर देखें हैं ? छिटपुट कहानियां ज़रुर देखी होंगी। मैंने कुछ और ज़रुर देखा, कुछ भिन्न। मैंने देखा कि पिताजी किसीसे काम करवाते थे तो एक तो वे उनके चाय और कुछ न कुछ नाश्ता ज़रुर देते थे, कभी-कभी वे उनको ‘बाबूजी’ भी कहते थे। बाबूजी से उनका अभिप्राय होता था-सरजी, साहबजी, शाहजी आदि। कोई कामवाला बेईमान निकलता तो मुझे ग़ुस्सा भी आता कि पिताजी इसको बाबूजी क्यों कहते हैं। मेरी माताजी जमादार का कप तो अलग रखता थी मगर उससे बात करने का उनका अंदाज़ वो नहीं होता था जो दूसरों का होता था। मैं देखता था कि मेरी बहिनें गर्मियों में अगर कहीं से रिक्शे में आतीं थीं तो पहले रिक्शेवाले के लिए स्टील के गिलास और जग में ठंडा पानी ले जातीं थीं। कई बार बर्तन साफ़ करनेवाली महिला ऐसे बर्तनों को साफ़ करने से इंकार कर देती थी। दिल्ली में पहली बार पहले फ़्लैट में काम कराते हुए जब मैं मज़दूरों के साथ चाय पी रहा था तो पड़ोसिनें हंस रहीं थीं। उसके बाद दो-चार बार मैंने मज़दूरों के लिए चाय बनाई तो वे कहने लगे कि हम धोएंगे, मैंने कहा कि अपने के साथ तुम्हारे भी धो दूंगा, इसमें क्या ख़ास बात है !

मुझे समझ में यह नहीं आता कि कोई अच्छा काम किसी भी वजह से कर रहा हो, कुछ लोग उसपर अपने ब्राँड का ठप्पा क्यों लगाना चाहते हैं !? कि यह हिंदू होने की वजह से कर रहा है, यह मुस्लिम होने की वजह से कर रहा, यह धार्मिक होने की वजह से कर रहा है, यह धर्मनिरपेक्ष होने की वजह से कर रहा है, यह पंजाबी होने की वजह से कर रहा है, यह बंगाली होने की वजह से कर रहा है !

मैं बिलकुल स्पष्ट कर दूं मैं जब भी कोई ढंग का काम करता हूं तो उसकी उपरोक्त में से कोई वजह नहीं होती।
(जारी)

-संजय ग्रोवर
19-03-2019


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