तब तक दिल्ली नहीं आया था। दूरदर्शन और उसके बाद में खुल गए निजी चैनलों पर बहस के कार्यक्रम शौक़ से देखता था। कुछ खटकता था जब देखता था कि मेरे प्रिय वक़्ता उन बातों का ऐसा जवाब नहीं दे रहे जैसा देना चाहिए था या जैसा मुझ जैसे अज्ञानी-अनाथ को भी बड़ी आसानी से सूझ रहा है। जैसे कि जब पहली बार गणेश की मूर्तियों ने तथाकथित तौर पर दूध पिया तो गांव से लेकर स्टूडियो तक एक ही बहस चल रही थी कि ‘पिया या नहीं पिया’ ! उधर मैं सोच रहा था कि ये लोग यह क्यों नहीं सोचते कि ‘पी भी लिया तो क्या हो गया ? किसका फ़ायदा हो गया ? जहां ग़रीब लोगों के पास पीने को पानी नहीं है, वहां यह कैसा भगवान है जो बचा-खुचा दूध भी पिए ले रहा है ? दूध पी रहा है तो मुंह खोलने में क्या कष्ट है, चम्मच बिलकुल मुंह से क्यों सटाना पड़ता है ?’
बहस के ऐसे तमाम कार्यक्रमों को देखते हुए ऐसे कुछ न कुछ शक़, सवाल मन में पैदा हो जाते और फिर बने ही रहते। समाज या भीड़ के डर से अपने मन से मैंने कभी भी ऐसे सवालों या शक़ों को नहीं निकाला जिनका कोई
तार्किक आधार था, जो हर बार खटकते थे।
समस्या यह थी कि उस वक़्त मैं भी धर्मरिपेक्ष लोगों को प्रगतिशील तो समझता ही था, कभी-कभी अपनी तरह नास्तिक भी समझ लेता था। दिल्ली आने के बाद, उसके बाद फिर इंटरनेट पर आने के बाद मुझे एक खुला स्पेस दिखाई दिया जहां अपने विचारों को खुलके व्यक्त किया जा सकता था। धीरे-धीरे मैंने अपनी बात कहनी शुरु की और जब स्वीकृति मिलनी शुरु हुई तो विचारों को मेरे मन में, और बाहर भी, विस्तार मिलने लगा। आज मैं विचारों से इतना भरा हूं कि 7-8 साल से, लगभग, बिना अख़बार, क़िताब पढ़े, लगातार लिख रहा हूं।
आज मैं बहुत स्पष्टता से कह सकता हूं कि धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता में बहुत बड़ा अंतर है ; और नास्तिकता इन दोनों से भी बड़ी है। धर्मनिरपेक्षता दरअसल धर्म के ही ज़्यादा क़रीब है। एक धर्म के माननेवाले को धार्मिक कहते हैं तो कई धर्मों के माननेवाले को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं। यहां दिलचस्प और बहुत बड़ा विरोधाभास यह है कि तथाकथित प्रगतिशील एक तरफ़ तो दूध पीने की घटना को अंधविश्वास बताता है, दूसरी तरफ़ ऐसे सभी त्यौहारों पर बधाईयां भी देता है, शामिल भी होता है और मौक़ा लग जाए तो खाता-पीता भी है। अब सवाल यह है कि इन त्यौहारों और कर्मकांडों में सिवाय सामूहिक भोज और उत्सव के ऐसा क्या है कि इन्हें किसी तार्किक, वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी समझा जा सके !? देश में दो बार मूर्तियों के कथित दुग्धपान की घटना इतने बड़े पैमाने पर हुई कि अच्छा-ख़ासा विज्ञापन हो गया और तथाकथित प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने कहा कि यह अंधविश्वास है। लेकिन उससे पहले और बाद में जो दूध फैलाया जा रहा था (या है), वो क्या है ? उसे क्या आप प्रगतिशीलता कहेंगे ? आप देखते होंगे कि तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी ऐसे छोटे से छोटे त्यौहारों पर बधाईयों की बाढ़-सी छोड़ देते हैं। एक दिन दूध फैलता है तो अंधविश्वास और रोज़ फैलता है तो बधाई! बात कुछ समझ में नहीं आई! मेरी समझ में त्यौहारों और कर्मकांडों का आधार अकसर अंधविश्वास या दोहराव ही होता है। जहां तक सामूहिकता और उत्सव की बात है, उसके लिए दूसरे भी तरीक़े हैं, उसके लिए अंधविश्वास को बढ़ावा देना ज़रुरी तो नहीं है !
प्रगतिशीलता और नास्तिकता, पिछला अगर व्यर्थ लगता है तो, उसको छोड़कर आगे बढ़ जाने का साहस है। मुझे कोई हैरानी नहीं हुई जब नास्तिक ग्रुप के उत्थान के समय में तथाकथित प्रगतिशीलों की ऐसी अपीलें पढ़ीं कि ‘भैया, ज़्यादा हो तो धर्मनिरपेक्ष बन जाना मगर नास्तिकता की तरफ़ ग़लती से भी न जाना’। यह स्वाभाविक ही था क्योंकि धर्मनिरपेक्षता में न तो वर्णव्यवस्था का कुछ बिगड़ा था न अंधविश्वासों का, ऊपर से ‘अनेकता में एकता’ का भ्रम भी बरकरार था। यह मेरे लिए अद्भुत भी था और सुखद भी कि नास्तिक ग्रुप में दलित तेज़ी से जुड़ रहे थे। यह नास्तिकता मात्रा-व्याकरण-शिल्प-शैली की परवाह किए बिना खुलकर विचार करने की स्वतंत्रता की नास्तिकता थी। इसमें न तो इतिहास का कोई बंधन था न बिना तर्क की परंपराओं का बोझ लादे फिरने की कोई मजबूरी थी।
इसमें आपको ऐसा कोई कोल्हू का बैल नहीं बनना था कि अगर किसी मंच पर एक शायर दहेज में दासियां लाने का महिमामंडन कर रहा है और बराबर में खड़ा उसका दूसरा कवि दोस्त अपने महान ख़ानदान का अतार्किक रुढ़िवादी रोना रो रहा है और तीसरा कोई मां की बेतुकी भावुक तारीफ़ कर रहा है जिसमें उसके लिए तो मां ने काफ़ी कुछ किया पर उसने मां के लिए कविता-आरती के अलावा क्या किया यह पता ही नहीं चल रहा ऊपर से तुर्रा यह कि ये तीनों कट्टरपंथीं प्राणी अगर एक साथ मंच पर आ जाएं तो किसी ‘गंगा-जमुनी परंपरा/संस्कृति के तहत आपको इन्हें प्रगतिशील भी मानना पड़ेगा। इनकी दोस्ती अच्छी है, इसमें कोई बुराई नहीं मगर ऐसे लोगों को प्रगतिशील मानने का अच्छा-ख़ासा नुकसान हमने झेला है और झेल रहे हैं।
हां, लोकप्रियता के लिए गंगा-जमुनी सभ्यता भी अच्छी है और धर्मनिरपेक्षता भी, खाने-पीने की वैराइटी बढ़ जाती है, जुगाड़-क्षमता में भी इज़ाफ़ा होता है, ख़ामख़्वाह में लोग आपको प्रगतिशील भी समझने लगते हैं।
जहां तक मेरी बात है, मैं इसको बिलकुल भी ज़रुरी नहीं समझता कि कहीं लोग मुझे ग़लत, ईर्ष्यालु और घृणालु न समझ लें सिर्फ़ इसलिए हर जाति, धर्म, देश, पेशा, वर्ग, लिंग, वर्ण, संप्रदाय...के कम-अज़-कम एक-एक व्यक्ति से दोस्ती ज़रुर रखूं-एक क्रिश्चियन, एक रशियन, एक जर्मन, एक लड़का, एक लड़की, एक जवान, एक बुज़ुर्ग, एक अंकल, एक आंटी, एक मद्रासी, एक बंगाली, एक अखबारवाला, एक केबलवाला..........बाबा रे बाबा....यह कैसी ज़िंदगी हो जाएगी...हम दुनिया में सहज ढंग से जीने आए हैं या कोई दुकान खोलने या मंत्रीमंडल बनाने आए हैं... आखि़र आदमी के लिए कोई एक तो ठिकाना ऐसा होना चाहिए जहां दुनियादारी या राजनीति न हो...
मैं तो बस आदमी की तरह मिलता हूं और आदमी की ही तरह अगर कोई अच्छा लगता है तभी आगे की सोचता हूं।
अब यह धर्मनिरपेक्षता क्या है ?
-संजय ग्रोवर
22-05-2018
बहस के ऐसे तमाम कार्यक्रमों को देखते हुए ऐसे कुछ न कुछ शक़, सवाल मन में पैदा हो जाते और फिर बने ही रहते। समाज या भीड़ के डर से अपने मन से मैंने कभी भी ऐसे सवालों या शक़ों को नहीं निकाला जिनका कोई
तार्किक आधार था, जो हर बार खटकते थे।
समस्या यह थी कि उस वक़्त मैं भी धर्मरिपेक्ष लोगों को प्रगतिशील तो समझता ही था, कभी-कभी अपनी तरह नास्तिक भी समझ लेता था। दिल्ली आने के बाद, उसके बाद फिर इंटरनेट पर आने के बाद मुझे एक खुला स्पेस दिखाई दिया जहां अपने विचारों को खुलके व्यक्त किया जा सकता था। धीरे-धीरे मैंने अपनी बात कहनी शुरु की और जब स्वीकृति मिलनी शुरु हुई तो विचारों को मेरे मन में, और बाहर भी, विस्तार मिलने लगा। आज मैं विचारों से इतना भरा हूं कि 7-8 साल से, लगभग, बिना अख़बार, क़िताब पढ़े, लगातार लिख रहा हूं।
आज मैं बहुत स्पष्टता से कह सकता हूं कि धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता में बहुत बड़ा अंतर है ; और नास्तिकता इन दोनों से भी बड़ी है। धर्मनिरपेक्षता दरअसल धर्म के ही ज़्यादा क़रीब है। एक धर्म के माननेवाले को धार्मिक कहते हैं तो कई धर्मों के माननेवाले को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं। यहां दिलचस्प और बहुत बड़ा विरोधाभास यह है कि तथाकथित प्रगतिशील एक तरफ़ तो दूध पीने की घटना को अंधविश्वास बताता है, दूसरी तरफ़ ऐसे सभी त्यौहारों पर बधाईयां भी देता है, शामिल भी होता है और मौक़ा लग जाए तो खाता-पीता भी है। अब सवाल यह है कि इन त्यौहारों और कर्मकांडों में सिवाय सामूहिक भोज और उत्सव के ऐसा क्या है कि इन्हें किसी तार्किक, वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी समझा जा सके !? देश में दो बार मूर्तियों के कथित दुग्धपान की घटना इतने बड़े पैमाने पर हुई कि अच्छा-ख़ासा विज्ञापन हो गया और तथाकथित प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने कहा कि यह अंधविश्वास है। लेकिन उससे पहले और बाद में जो दूध फैलाया जा रहा था (या है), वो क्या है ? उसे क्या आप प्रगतिशीलता कहेंगे ? आप देखते होंगे कि तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी ऐसे छोटे से छोटे त्यौहारों पर बधाईयों की बाढ़-सी छोड़ देते हैं। एक दिन दूध फैलता है तो अंधविश्वास और रोज़ फैलता है तो बधाई! बात कुछ समझ में नहीं आई! मेरी समझ में त्यौहारों और कर्मकांडों का आधार अकसर अंधविश्वास या दोहराव ही होता है। जहां तक सामूहिकता और उत्सव की बात है, उसके लिए दूसरे भी तरीक़े हैं, उसके लिए अंधविश्वास को बढ़ावा देना ज़रुरी तो नहीं है !
प्रगतिशीलता और नास्तिकता, पिछला अगर व्यर्थ लगता है तो, उसको छोड़कर आगे बढ़ जाने का साहस है। मुझे कोई हैरानी नहीं हुई जब नास्तिक ग्रुप के उत्थान के समय में तथाकथित प्रगतिशीलों की ऐसी अपीलें पढ़ीं कि ‘भैया, ज़्यादा हो तो धर्मनिरपेक्ष बन जाना मगर नास्तिकता की तरफ़ ग़लती से भी न जाना’। यह स्वाभाविक ही था क्योंकि धर्मनिरपेक्षता में न तो वर्णव्यवस्था का कुछ बिगड़ा था न अंधविश्वासों का, ऊपर से ‘अनेकता में एकता’ का भ्रम भी बरकरार था। यह मेरे लिए अद्भुत भी था और सुखद भी कि नास्तिक ग्रुप में दलित तेज़ी से जुड़ रहे थे। यह नास्तिकता मात्रा-व्याकरण-शिल्प-शैली की परवाह किए बिना खुलकर विचार करने की स्वतंत्रता की नास्तिकता थी। इसमें न तो इतिहास का कोई बंधन था न बिना तर्क की परंपराओं का बोझ लादे फिरने की कोई मजबूरी थी।
इसमें आपको ऐसा कोई कोल्हू का बैल नहीं बनना था कि अगर किसी मंच पर एक शायर दहेज में दासियां लाने का महिमामंडन कर रहा है और बराबर में खड़ा उसका दूसरा कवि दोस्त अपने महान ख़ानदान का अतार्किक रुढ़िवादी रोना रो रहा है और तीसरा कोई मां की बेतुकी भावुक तारीफ़ कर रहा है जिसमें उसके लिए तो मां ने काफ़ी कुछ किया पर उसने मां के लिए कविता-आरती के अलावा क्या किया यह पता ही नहीं चल रहा ऊपर से तुर्रा यह कि ये तीनों कट्टरपंथीं प्राणी अगर एक साथ मंच पर आ जाएं तो किसी ‘गंगा-जमुनी परंपरा/संस्कृति के तहत आपको इन्हें प्रगतिशील भी मानना पड़ेगा। इनकी दोस्ती अच्छी है, इसमें कोई बुराई नहीं मगर ऐसे लोगों को प्रगतिशील मानने का अच्छा-ख़ासा नुकसान हमने झेला है और झेल रहे हैं।
हां, लोकप्रियता के लिए गंगा-जमुनी सभ्यता भी अच्छी है और धर्मनिरपेक्षता भी, खाने-पीने की वैराइटी बढ़ जाती है, जुगाड़-क्षमता में भी इज़ाफ़ा होता है, ख़ामख़्वाह में लोग आपको प्रगतिशील भी समझने लगते हैं।
जहां तक मेरी बात है, मैं इसको बिलकुल भी ज़रुरी नहीं समझता कि कहीं लोग मुझे ग़लत, ईर्ष्यालु और घृणालु न समझ लें सिर्फ़ इसलिए हर जाति, धर्म, देश, पेशा, वर्ग, लिंग, वर्ण, संप्रदाय...के कम-अज़-कम एक-एक व्यक्ति से दोस्ती ज़रुर रखूं-एक क्रिश्चियन, एक रशियन, एक जर्मन, एक लड़का, एक लड़की, एक जवान, एक बुज़ुर्ग, एक अंकल, एक आंटी, एक मद्रासी, एक बंगाली, एक अखबारवाला, एक केबलवाला..........बाबा रे बाबा....यह कैसी ज़िंदगी हो जाएगी...हम दुनिया में सहज ढंग से जीने आए हैं या कोई दुकान खोलने या मंत्रीमंडल बनाने आए हैं... आखि़र आदमी के लिए कोई एक तो ठिकाना ऐसा होना चाहिए जहां दुनियादारी या राजनीति न हो...
मैं तो बस आदमी की तरह मिलता हूं और आदमी की ही तरह अगर कोई अच्छा लगता है तभी आगे की सोचता हूं।
-संजय ग्रोवर
22-05-2018
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