अपने-अपने धर्म का बैनर लगाकर जो लोग समाजसेवा का प्रदर्शन करते हैं वे दरअसल समाज के विभाजन और सांप्रदायिकता में हिस्सेदरी की नींव रख रहे होते हैं। हैरानी होती है जब यही लोग सांप्रदायिक एकता के मसीहा का काम भी संभाल लेते हैं।
हैरानी होती है कि जिन्हें साल में एक दिन आलू-मैदा बांटने के लिए भी किसी धर्मविशेष की छत्रछाया की ज़रुरत पड़ जाती है वे अपने दम पर अगर किसीकी मदद करनी पड़ जाए तो कैसे करेंगे !?
मदद धर्म से होती है या इंसान में मौजूद इंसानियत, संवेदना और बुद्धि के फलस्वरुप पैदा हुए तर्क और चिंतन की वजह से !?
धर्म और परंपरा से भी मदद होती है, पर कैसे होती है !? आप किसी लड़की की शादी में लिफ़ाफ़े में कुछ पैसे डालकर वहां पटक आते हैं। धर्म और परंपरा आपको इतना भी सोचने का मौक़ा नहीं देते कि लड़कियों की ही शादी में पैसे क्यों देने पड़ते हैं ? यह रिवाज बनाया किसने ? यह तो ऐसे ही हुआ जैसे पहले तो आप ही किसीकी टांग तोड़ दें फिर आप ही मलहम लेकर पहुंच जाएं !
जो तथाकथित बुद्धिजीवी ऐसे लोगों को ‘प्रोत्साहित’ करते हैं, हैरानी होती है कि क्या वे इतने कम बुद्धिजीवी हैं कि वे ऐसे नाज़ुक मसलों का भी सिर्फ़ एक ही पहलू देख पाने में सक्षम होते हैं ?
(जारी)
-संजय ग्रोवर
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