Wednesday, 21 March 2018

वाद का अवसाद





राजेंद्र यादव ‘हंस’ में कविता सिर्फ़ दो पृष्ठों/पेजों में छापते थे।

मुझे याद नहीं ऐसा करने के लिए उन्होंने क्या कारण बताए थे।

लेकिन मैं कुछ हिंदी कवियों को पढ़ता रहा हूं, कुछ के साथ भी रहा हूं।

पहली बात तो यह मुझे समझ में आई कि हिंदी कवियों की प्रगतिशीलता लगभग झूठी है, इनमें से बहुत कम लोग स्वतंत्र रुप से कोई मौलिक सच बोलने में सक्षम हैं ; पुराना, घिसा-पिटा, तयशुदा सच बोलने के लिए भी इन्हें किसी बैनर, किसी वाद, किसी दल, किसी धर्म, किसी जाति का सहारा चाहिए होता है। वे कविता में बहादुर पर दरअसल बेहद कमज़ोर लोग हैं। अस्सी-नब्बे साल की उम्र में एम्स जैसे बड़े, जुगाड़ुओं के लिए ही बने, हॉस्पीटल में मरते हुए भी इन्हें लगता है कि कोई बहुत ही भीषण, विकट समय आ गया है।


सही बात यह है कि जिनके लिए कविता लिखने का इनका दावा होता है उन तक न इनकी कविता पहुंचती है, न उनकी समझ में आती है, न उनको इनकी मौत की ख़बर होती है। उन तक पहुंचने की ये कोई कोशिश करते भी नहीं हैं। दरअसल उनका भीषण-विकट समय हर सरकार, हर वाद, हर शासन में चलता है, उनके जीवन में इनकी कविताएं रत्ती-भर असर नहीं डाल सकतीं। इनकी कविताएं वैसे भी पुरस्कार, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, चेले और चेलियों के लिए लिखी गईं होतीं हैं, ‘उनके’ लिए नहीं।

दूसरी बात, कविता में बिंब, अलंकार, उपमा, भावुकता आदि तो होते हैं पर तर्क नहीं होता। कवियों और शायरों को भी आप अगर पूरे होश में, पूरी जागरुकता के साथ सुनें तो संभावना यही है कि आप इनको अकसर तर्करहित ही पाएंगे।

आप अगर मुझे इजाज़त नहीं भी दें तो मैं इस बात पर ठहाका लगाना चाहूंगा कि इतने अय्याशीपूर्ण ढंग से, तमाम जुगाड़ों, चमचों और सुख-सुविधाओं के बीच मरते हुए भी इनको लगता है कि कोई भीषण और विकट समय आ गया है। ऐसा लगता है कि भारत में कवि और साहित्यकार पहली बार मर रहे हैं। ऐसी अतिश्योक्तिपूर्ण मूर्खोक्तियों की वजह से ही मेरेे जैसा व्यक्ति भांप जाता है कि ज़रुर कोई प्रायोजित माफ़िया है जिसका काम बस अपने-अपने मालिकों के पक्ष में, दूसरों के मालिकों के विपक्ष में अपने-अपने हिस्से का विलाप/प्रलाप/नाटक करना है।

अपने मुहावरों, लोकगीतों, भक्तिगीतों, परंपराओं, वीरोक्तियों, रुदालियों को याद करो--न जाने कितने लाख बार तुमने बोला कि ‘संकट के समय में ही साहस का पता चलता है’। लेकिन तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि या तो संकट नक़ली है या साहस नक़ली है। 

कोई हैरानी नहीं होती जब तथाकथित प्रगतिशीलों को यह रोना रोते देखता हूं कि हाए, सारी परंपराएं तोड़ी जा रहीं हैं। बताईए, परंपराएं तोड़ना तो तुम्हारे हिस्से का काम था, यह भी भूल गए क्या ? क्या हो गया तुम्हारी स्मृति को ? लेकिन प्रगतिशीलता होती तब न ! कम-अज़-कम यह तो बताया होता कि कौन-सी परंपरा क्यों नहीं तोड़नी चाहिए या क्यों तोड़नी चाहिए !? या अतार्किक आकाशवाणियां करना ही तुम्हारी परंपरा है !? इनकी एक-एक हरक़त बताती है कि ये प्रगतिशीलता के नाम पर मौक़ापरस्ती के अभ्यस्त हैं।

मेरी माताजी की मृत्यु हुई जब मैं फ़ेसबुक पर आ चुका था, कई लोग जानते थे, कई जानने लगे थे। मुझे ख़्याल भी नहीं आया कि फ़ेसबुक पर डालना चाहिए। मेरे पिताजी का देहांत जीटीबी में हुआ। बहुत दबाव में मैंने दो-चार लोगों को कमरा/वार्ड आदि दिलवाने के लिए फ़ोन किया। मुझे कोई ख़ास बुरा नहीं लगा जब उन्होंने असमर्थता ज़ाहिर कर दी। जबसे मुझे अक़्ल आई तब से मैंने यह चाहना बंद कर दिया था कि मेरे पिताजी मेरे लिए किसीसे जुगाड़ लगाएं।



क्या हम इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने के बावजूद मर भी ईमानदारी से नहीं सकते !?

(आगे भी)

-संजय ग्रोवर
21-03-2018

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