जब आपको मरीज़ की जान की चिंता होती है तो आपको इसकी परवाह नहीं होती कि वह होमियोपैथी से ठीक होगा, ऐलोपैथी से होगा कि आयुर्वेद से होगा कि और किसी तरीके से होगा। आप यथासंभव कोशिश करते हैं, जितना जेब अलाउ करती है, पैसा ख़र्च करते हैं, कर्ज़ भी ले लेते हैं, भाग-दौड़ करते हैं। मरीज़ बच जाए तब ज़रुर आप लोगों को बताते हैं कि बचाने का श्रेय किसे जाता है।
दवा कंपनी या डॉक्टर इसपर गर्व करे, इसकी पब्लिसिटी करे तो समझ में आता है। क्योंकि उनका यह धंधा है। मरीज़ मेरी दवा से बचे कि तेरी दवा से, इससे हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है!?
मगर सामाजिक समस्याओं के मामले में हमारा रवैय्या अजीब है। समस्या हल भी नहीं हुई कि लोग क्रेडिट लेने को तैयार बैठे हैं। कोई पंद्रह हज़ार साल पुरानी क़िताब लिए चला आ रहा है कि देखो, यहीं सारे सवालों के जवाब लिखे हैं तो कोई पंद्रह सौ साल पुराना पोथन्ना लिए खड़ा है कि इससे हल न हुआ तो फिर किसीसे न होगा। कोई कह रहा है कि हमारी तरक़ीब तो तुमने कभी आज़माई नहीं, एक बार इसे भी ट्राई करके देखो न ! यह तरकीब कहां से आई! यह भी एक क़िताब से आई जो किसी समाज की किसी बदमाशी की वजह से कहीं दब-ढंक गई थी। अरे, मतलब तो समस्या हल होने से है, सबको अपना बैनर लगाने की इतनी चिंता क्यों लगी है !?
यह मसला सिर्फ़ अहंकार का है। वरना मैं बिना किसी शोध, बिना सर्वे के दावा कर सकता हूं कि दुनिया में कोई धर्म, कोई वाद, कोई देश, कोई समूह, कोई व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता जो सब कुछ जानता हो, जिसके पास सारी समस्याओं के हल हों। इससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण सोच कोई हो नहीं सकती। अगर कोई ऐसा दावा करता है तो समझिए कि वह ख़ुद ही एक समस्या है।
मान लीजिए स्त्रियों की कोई समस्या है, तो पहले तो हम यहीं लड़ने-मरने में वक्त लगा रहे हैं कि मेरा फ़ॉर्मूला अप्लाई होगा, नहीं मेरा बैटर है, नहीं हमारा बैस्ट है। अरे समस्या जिससे हल हो रही हो उसे अपना लो। वह तरीक़ा चाहे पश्चिम से आया हो, बाबा साहेब ने बताया हो, सनातन से निकला हो, इस्लाम ने दिया हो कि आपकी छोटी बच्ची ने सुझाया हो। जिसका जितना सही है उतना ले लो। मतलब तो समस्या हल होने से है।
मुझे तो लगता है कि मीडिया द्वारा किसीको भी सार्वजनिक तौर पर क्रेडिट दिया जाना बंद कर दिया जाना चाहिए। इससे एक तो क्रेडिट के झगड़े भी बंद हो जाएंगे, दूसरे यह भी पता चल जाएगा कि सचमुच निस्वार्थ समाजसेवा में कितने लोगों की रुचि है।
-संजयग्रोवर
07-10-2013
(on facebook)
दवा कंपनी या डॉक्टर इसपर गर्व करे, इसकी पब्लिसिटी करे तो समझ में आता है। क्योंकि उनका यह धंधा है। मरीज़ मेरी दवा से बचे कि तेरी दवा से, इससे हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है!?
मगर सामाजिक समस्याओं के मामले में हमारा रवैय्या अजीब है। समस्या हल भी नहीं हुई कि लोग क्रेडिट लेने को तैयार बैठे हैं। कोई पंद्रह हज़ार साल पुरानी क़िताब लिए चला आ रहा है कि देखो, यहीं सारे सवालों के जवाब लिखे हैं तो कोई पंद्रह सौ साल पुराना पोथन्ना लिए खड़ा है कि इससे हल न हुआ तो फिर किसीसे न होगा। कोई कह रहा है कि हमारी तरक़ीब तो तुमने कभी आज़माई नहीं, एक बार इसे भी ट्राई करके देखो न ! यह तरकीब कहां से आई! यह भी एक क़िताब से आई जो किसी समाज की किसी बदमाशी की वजह से कहीं दब-ढंक गई थी। अरे, मतलब तो समस्या हल होने से है, सबको अपना बैनर लगाने की इतनी चिंता क्यों लगी है !?
यह मसला सिर्फ़ अहंकार का है। वरना मैं बिना किसी शोध, बिना सर्वे के दावा कर सकता हूं कि दुनिया में कोई धर्म, कोई वाद, कोई देश, कोई समूह, कोई व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता जो सब कुछ जानता हो, जिसके पास सारी समस्याओं के हल हों। इससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण सोच कोई हो नहीं सकती। अगर कोई ऐसा दावा करता है तो समझिए कि वह ख़ुद ही एक समस्या है।
मान लीजिए स्त्रियों की कोई समस्या है, तो पहले तो हम यहीं लड़ने-मरने में वक्त लगा रहे हैं कि मेरा फ़ॉर्मूला अप्लाई होगा, नहीं मेरा बैटर है, नहीं हमारा बैस्ट है। अरे समस्या जिससे हल हो रही हो उसे अपना लो। वह तरीक़ा चाहे पश्चिम से आया हो, बाबा साहेब ने बताया हो, सनातन से निकला हो, इस्लाम ने दिया हो कि आपकी छोटी बच्ची ने सुझाया हो। जिसका जितना सही है उतना ले लो। मतलब तो समस्या हल होने से है।
मुझे तो लगता है कि मीडिया द्वारा किसीको भी सार्वजनिक तौर पर क्रेडिट दिया जाना बंद कर दिया जाना चाहिए। इससे एक तो क्रेडिट के झगड़े भी बंद हो जाएंगे, दूसरे यह भी पता चल जाएगा कि सचमुच निस्वार्थ समाजसेवा में कितने लोगों की रुचि है।
-संजयग्रोवर
07-10-2013
(on facebook)
सब अपने प्रचार-प्रसार में लगे हैं, मुसीबत से किसी को कोई लेना देना नहीं...
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