04-07-2017
मेरे पीछे का फ़्लैट(134-ए, पॉकेट-ए, दिलशाद गार्डन, दिल्ली) जो कई सालों से खाली पड़ा था, कुछ दिन पहले बिक गया है। कई दिनों से वहां से खटर-पटर, धूम-धड़ाम की आवाज़ें आ रहीं हैं। आज मैंने पिछले कई साल से बंद पड़ा अपने पिछले कोर्टयार्ड का दरवाज़ा खोला जो गंदगी से भरा मिल़ा। इस गंदगी में मेरा योगदान ज़रा भी नहीं है। ऊपर मजदूर काम करते दिखाई दिए, मैंने कहा यहां कमरा तो नहीं बना रहे? उन्होंने कहा कि बना तो रहे हैं। मैंने कहा कि यह नहीं हो सकता, यह ग़ैरक़ानूनी है, मैंने यह डीडीए फ़्लैट इसलिए ख़रीदा था कि आगे-पीछे ख़ुला था, मैं इसे बंद नहीं होने दूंगा। मजदूर बोले कि मालिक़ से बात करलो, मैंने कहा इसमें बात क्या करनी है, क़ानून स्पष्ट है। उन्होंने मालिक़ को फ़ोन मिलाकर मुझे पकड़ा दिया। मालिक़ कहने लगे कि मिल-बैठकर बात कर लेंगे। मैंने कहा इसमें बात क्या करनी है, पैसे मैंने लेने नहीं हैं, क़ानून मुझे तोड़ना नहीं है। फिर वे बोले कि चार-चार बच्चे हैं, जगह तो चाहिए। मैंने कहा कि इसमें मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं है, मेरी कोई ग़लती नहीं है, मैं क्यों भुगतूं ? काफ़ी बातचीत के बाद उन्होंने कहा कि आपकी मर्ज़ी नहीं होगी तो नहीं बनाएंगे मगर साथ-साथ एक बार मिलने की बात भी कहे जा रहे थे।
यह स्टेटस मैंने किसी मदद के लिए नहीं बल्कि सूचनार्थ लिखा है। आज से कुछ चार-पांच साल पहले जब मैं चारों तरफ़ से घिरा हुआ था, कई तरह के प्रयत्न और तजुर्बे कर चुका था, उसी एक घड़ी में मैंने एक निर्णय ले लिया था-रोज़-रोज़ मरने से अच्छा है, एक ही दिन मर जाओ। वो दिन है और आज का दिन है मैंने किसीको मदद के लिए नहीं पुकारा। बड़ी से बड़ी परेशानी में एक ही चीज़ मुझे सहारा देती है-कि ज़्यादा से ज़्यादा कोई जान ले लेगा मगर मैं किसी ग़लत आदमी के दबाव में नहीं आऊंगा, मैं पाखंडियों को हीरो नहीं बनने दूंगा, मैं बेईमानों को सम्मान के साथ नहीं सुनूंगा, मैं कट्टरपंथियों से प्रगतिशीलता नहीं सीखूंगा, मैं वर्ण और श्रेष्ठतावादियों से समानता नहीं सीखूंगा, मैं मानवताविरोधी, वर्णसमर्थक पुरुषों/स्त्रियों से स्त्रीवाद नहीं सीखूंगा। तब तो बिलकुल भी नहीं जब मैं इनको भी अच्छी तरह जानता होऊं और ख़ुदको भी......
आज या आगे कभी भी, मुझे कुछ होता है तो मुझे कोई अफ़सोस नहीं होगा। पिछले 5-7 सालों में, मैंने अपनी पसंद की ज़िंदगी जी है, अपनी पसंद का लेखन किया है, अपनी तरह से क़िताबें छापीं हैं। कई-कई तरह के भयानक दर्दों के बीच खाना बनाना, कपड़े धोना, बर्तन धोना, वीडियो बनाना, ई-क़िताब छापना, बेईमानों से निपटना....सब कुछ अपने आप सीखा। अगर ज़िंदा रहा तो बचे हुए काम भी साल-दो-साल में पूरे हो जाएंगे।
अगर मुझे कुछ होता है तो इसके ज़िम्मेदार होंगे-धार्मिकता, धर्मनिरपेक्षता और ब्राहमणवाद क्योंकि ये सब ही इंसान को सिखाते हैं कि पहले नाजायज़ काम कर लो, बेईमानी और बलात्कार कर लो और बाद में डुबकी लगालो, चढ़ावा चढ़ा दो, भंडारा करा दो, कीर्तन-जागरन करा दो, पुरस्कार बांट दो और आराम से सो जाओ।
इसे विस्तार से अभी लिखना है। अभी तो सबसे ओपन नेटवर्क चलानेवालों के बारे में भी लिखना है कि वे पिछले कई सालों से बीच-बीच में क्या-क्या अजीब हरक़तें मेरे साथ करते रहते हैं।
न तो मैं किसीका कोई काम पिछले रास्ते से या जुगाड़ से करा सकता हूं, न ही मैं किसी विचारधारा पर ज़बरदस्ती हामी भर सकता हूं, न ही किसी जाति-बिरादरी-धर्म-गुट-दल में शामिल हो सकता हूं, न किसीकी समीक्षा कर या करा सकता हूं, न किसीको अख़बार, सेमिनार या चैनल में जगह दिला सकता हूं, न किसीको नौकरी दिला सकता हूं, न समाज के मानवविरोधी कर्मकांडों, रीति-रिवाजों में शामिल हो सकता हूं....इसके बावजूद भी कोई अगर बात करना चाहे तो कर सकता है....
5-7 साल पहले जब ऐसी परेशानी आई थी तो कुछ दोस्त मदद के लिए आए थे, उनमें से एक-दो ने काफ़ी काम भी किया। बाद में मैंने उन्हें भी मुक्त कर दिया....
05-07-2017
मैं यह बताना चाहता हूं कि लोग ख़ुलें में सिर्फ़ टट्टी नहीं करते, बल्कि और भी बहुत बड़े-बड़े काम करते हैं। और इन कामों में अकसर महिलाओं की भी पूरी सहमति रहती है। मुझे याद है पिछली बार जब मैंने ऐसे ही नाजायज़ कमरा बनानेवालों को रोका था और उन लोगों ने मुझे दाएं-बाएं, दोनों तरफ़ से पकड़ा हुआ था तो एक महिला मुंह पर चुन्नी डाले हंस रही थी। कल को इस औरत के साथ कुछ होगा तो क्या मेरे लिए इसकी मदद करना आसान होगा ?
पिछली बार ही फ़ेसबुक पर किन्हीं सज्जन ने सुझाव दिया था कि अपने पड़ोसियों को लेकर थाने जाओ। मैंने सोचा आधे पड़ोसियों ने ऐसे कमरे बना रखे हैं और कईयों ने बनाने हैं, मेरे साथ कौन जाएगा ?
बाद में यही हुआ भी, मेरे आसपास के कई घरों में कई कमरे और बन गए।
मेरा शक़ एक दिन यक़ीन में न बदल जाए कि धर्म और भगवान और कुछ नहीं सिर्फ़ बेईमानों का सुनियोजित गठजोड़ है, माफ़िया है !!
यह कमरा बनता है कि नहीं बनता, यह कुछ समय में सामने आ जाएगा मुझे ये बातें वैसे भी उठानी ही थी, आज ही सही।
(गाने भी मज़ेदार हैं-पहली पंक्ति में कहा है, ‘इंसाफ़ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके...’..अगली पंक्ति है-‘दुनिया के रंज सहना, और कुछ न मुंह से कहना...फिर अगली पंक्तिओं में कहा है-‘अपने हों या पराए, सबके लिए हो न्याय.....
गाया भी अच्छा है..... )
-संजय ग्रोवर
05-07-2017
मेरे पीछे का फ़्लैट(134-ए, पॉकेट-ए, दिलशाद गार्डन, दिल्ली) जो कई सालों से खाली पड़ा था, कुछ दिन पहले बिक गया है। कई दिनों से वहां से खटर-पटर, धूम-धड़ाम की आवाज़ें आ रहीं हैं। आज मैंने पिछले कई साल से बंद पड़ा अपने पिछले कोर्टयार्ड का दरवाज़ा खोला जो गंदगी से भरा मिल़ा। इस गंदगी में मेरा योगदान ज़रा भी नहीं है। ऊपर मजदूर काम करते दिखाई दिए, मैंने कहा यहां कमरा तो नहीं बना रहे? उन्होंने कहा कि बना तो रहे हैं। मैंने कहा कि यह नहीं हो सकता, यह ग़ैरक़ानूनी है, मैंने यह डीडीए फ़्लैट इसलिए ख़रीदा था कि आगे-पीछे ख़ुला था, मैं इसे बंद नहीं होने दूंगा। मजदूर बोले कि मालिक़ से बात करलो, मैंने कहा इसमें बात क्या करनी है, क़ानून स्पष्ट है। उन्होंने मालिक़ को फ़ोन मिलाकर मुझे पकड़ा दिया। मालिक़ कहने लगे कि मिल-बैठकर बात कर लेंगे। मैंने कहा इसमें बात क्या करनी है, पैसे मैंने लेने नहीं हैं, क़ानून मुझे तोड़ना नहीं है। फिर वे बोले कि चार-चार बच्चे हैं, जगह तो चाहिए। मैंने कहा कि इसमें मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं है, मेरी कोई ग़लती नहीं है, मैं क्यों भुगतूं ? काफ़ी बातचीत के बाद उन्होंने कहा कि आपकी मर्ज़ी नहीं होगी तो नहीं बनाएंगे मगर साथ-साथ एक बार मिलने की बात भी कहे जा रहे थे।
यह स्टेटस मैंने किसी मदद के लिए नहीं बल्कि सूचनार्थ लिखा है। आज से कुछ चार-पांच साल पहले जब मैं चारों तरफ़ से घिरा हुआ था, कई तरह के प्रयत्न और तजुर्बे कर चुका था, उसी एक घड़ी में मैंने एक निर्णय ले लिया था-रोज़-रोज़ मरने से अच्छा है, एक ही दिन मर जाओ। वो दिन है और आज का दिन है मैंने किसीको मदद के लिए नहीं पुकारा। बड़ी से बड़ी परेशानी में एक ही चीज़ मुझे सहारा देती है-कि ज़्यादा से ज़्यादा कोई जान ले लेगा मगर मैं किसी ग़लत आदमी के दबाव में नहीं आऊंगा, मैं पाखंडियों को हीरो नहीं बनने दूंगा, मैं बेईमानों को सम्मान के साथ नहीं सुनूंगा, मैं कट्टरपंथियों से प्रगतिशीलता नहीं सीखूंगा, मैं वर्ण और श्रेष्ठतावादियों से समानता नहीं सीखूंगा, मैं मानवताविरोधी, वर्णसमर्थक पुरुषों/स्त्रियों से स्त्रीवाद नहीं सीखूंगा। तब तो बिलकुल भी नहीं जब मैं इनको भी अच्छी तरह जानता होऊं और ख़ुदको भी......
आज या आगे कभी भी, मुझे कुछ होता है तो मुझे कोई अफ़सोस नहीं होगा। पिछले 5-7 सालों में, मैंने अपनी पसंद की ज़िंदगी जी है, अपनी पसंद का लेखन किया है, अपनी तरह से क़िताबें छापीं हैं। कई-कई तरह के भयानक दर्दों के बीच खाना बनाना, कपड़े धोना, बर्तन धोना, वीडियो बनाना, ई-क़िताब छापना, बेईमानों से निपटना....सब कुछ अपने आप सीखा। अगर ज़िंदा रहा तो बचे हुए काम भी साल-दो-साल में पूरे हो जाएंगे।
न तो मैं किसीका कोई काम पिछले रास्ते से या जुगाड़ से करा सकता हूं, न ही मैं किसी विचारधारा पर ज़बरदस्ती हामी भर सकता हूं, न ही किसी जाति-बिरादरी-धर्म-गुट-दल में शामिल हो सकता हूं, न किसीकी समीक्षा कर या करा सकता हूं, न किसीको अख़बार, सेमिनार या चैनल में जगह दिला सकता हूं, न किसीको नौकरी दिला सकता हूं, न समाज के मानवविरोधी कर्मकांडों, रीति-रिवाजों में शामिल हो सकता हूं....इसके बावजूद भी कोई अगर बात करना चाहे तो कर सकता है....
5-7 साल पहले जब ऐसी परेशानी आई थी तो कुछ दोस्त मदद के लिए आए थे, उनमें से एक-दो ने काफ़ी काम भी किया। बाद में मैंने उन्हें भी मुक्त कर दिया....
05-07-2017
मैं यह बताना चाहता हूं कि लोग ख़ुलें में सिर्फ़ टट्टी नहीं करते, बल्कि और भी बहुत बड़े-बड़े काम करते हैं। और इन कामों में अकसर महिलाओं की भी पूरी सहमति रहती है। मुझे याद है पिछली बार जब मैंने ऐसे ही नाजायज़ कमरा बनानेवालों को रोका था और उन लोगों ने मुझे दाएं-बाएं, दोनों तरफ़ से पकड़ा हुआ था तो एक महिला मुंह पर चुन्नी डाले हंस रही थी। कल को इस औरत के साथ कुछ होगा तो क्या मेरे लिए इसकी मदद करना आसान होगा ?
पिछली बार ही फ़ेसबुक पर किन्हीं सज्जन ने सुझाव दिया था कि अपने पड़ोसियों को लेकर थाने जाओ। मैंने सोचा आधे पड़ोसियों ने ऐसे कमरे बना रखे हैं और कईयों ने बनाने हैं, मेरे साथ कौन जाएगा ?
बाद में यही हुआ भी, मेरे आसपास के कई घरों में कई कमरे और बन गए।
मेरा शक़ एक दिन यक़ीन में न बदल जाए कि धर्म और भगवान और कुछ नहीं सिर्फ़ बेईमानों का सुनियोजित गठजोड़ है, माफ़िया है !!
यह कमरा बनता है कि नहीं बनता, यह कुछ समय में सामने आ जाएगा मुझे ये बातें वैसे भी उठानी ही थी, आज ही सही।
(गाने भी मज़ेदार हैं-पहली पंक्ति में कहा है, ‘इंसाफ़ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके...’..अगली पंक्ति है-‘दुनिया के रंज सहना, और कुछ न मुंह से कहना...फिर अगली पंक्तिओं में कहा है-‘अपने हों या पराए, सबके लिए हो न्याय.....
गाया भी अच्छा है..... )
-संजय ग्रोवर
05-07-2017
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