एक प्रसिद्ध व्यक्ति ट्वीट करता है कि एक सरकारी संस्था ने मुझसे पांच लाख रुपए रिश्वत मांगी है।
कोई पत्रकार उससे नहीं पूछता कि यह रिश्वत किस वजह से मांगी गई है !? वह रिश्वत मांगनेवाले का नाम नहीं बताता।
वही टीवी चैनल बताते हैं कि यह व्यक्ति ख़ुद भी रेज़ीडेंशियल इलाक़े में कमर्शियल दफ़्तर बनाने के इरादे से अवैद्य निर्माण करवा रहा था। थोड़े दिन चैनलों पर समाचार चलता है, छोटी-मोटी बहसें चलतीं हैं, नतीज़तन वह आदमी और ज़्यादा मशहूर हो जाता है।
जनता और बुद्धिजीवियों में से कोई नहीं पूछता कि आपने नाम नहीं बताया, आपके अपने अवैद्य निर्माण की हक़ीक़त क्या है ?
उस प्रसिद्ध आदमी के टीवी कार्यक्रम में आए दिन उस ट्वीट की चर्चा उपलब्धि की तरह होती है। भीड़ हंसती है, तालियां बजाती है।
इस भीड़ से किसीको कोई शिक़ायत नहीं है।
अतार्किक मानसिकता अतार्किक भीड़ का निर्माण करती है। अतार्किक भीड़ अतार्किक महापुरुष और सेलेब्रिटी बनाती है।
भीड़ हमारे लिए तालियां बजाती है, हमारे घर के नीचे खड़े होकर हाथ हिलाती है, हमारे ऑटोग्राफ़ लेती है, हमें माला पहनाती है, हमारा सम्मान करती है......
जब तक यह सब होता है, भीड़ हमें महान लगती है, हम नहीं पूछते, नहीं सोचते कि यह सब ठीक है या ग़लत, इससे समाज या दूसरे व्यक्तियों का फ़ायदा होगा या नुकसान.....
इस भीड़ को अंततः झेलता कौन है ?
मेरे आसपास जब भी कोई अवैद्य निर्माण होता है और मैं उसे रुकवाने की कोशिश करता हूं तो मुझे हमेशा यही
तर्क मिलता है कि सब यही कर रहे हैं तो फिर तुम अकेले कैसे सही हो ?
मेरा मन होता है, संभवतः एक बार मैंने कहा भी कि अगर सब बलात्कार करने लगें तो क्या मैं भी शुरु कर दूं !? कलको सब छेड़खानी करने तुम्हारे घर आएंगे तो तुम चाय-पेप्सी के साथ ख़ुद भी उनमें शामिल हो जाओंगे ?
अवैद्य निर्माणकर्ताओं की यह बात तो सही ही होती है कि ‘सब यही कर रहे हैं’। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, साहित्यकार, पत्रकार, बंगाली, मद्रासी, पंजाबी, गुजराती, आस्तिक, नास्तिक, ब्राहमण, दलित, मार्क्सवादी, राष्ट्रवादी.........कौन है जो यह नहीं करता ?
हममें से किसने इस भीड़ पर ऐतराज़ किया ?
भीड़ हमें भगवान बनाती है और हम ही उसे इसके लिए तैयार करते हैं। अगर कोई भीड़ की ज़्यादा परवाह नहीं करता तो ‘महापुरुष’ तक उसे घमंडी, सनकी, पागल तक करार देने लगते हैं।
जिस वक़्त भीड़ के खि़लाफ़ एक भीड़ विरोध करने खड़ी होती है ठीक उसी वक़्त दो फ़िल्मी सितारों के घरों के नीचे ‘युवाओं’ की भीड़ हाथ हिलाने और उनके दर्शन के लिए इंतज़ार कर रही होती है।
क्या हमने कभी इस भीड़ के बारे में सोचा ? क्या यह भीड़ बहुत सोच-समझकर आती है ? क्या ये बहुत तार्किक लोग हैं ? हममें से कई लोग इसपर सोचने तक को तैयार नहीं हैं, वजह बड़ी साफ़ है कि उन्हें भी इसी तरह लोकप्रिय होना है, महापुरुष, सेलेब्रिटी, आयकन और आयडल बनना है।
किसी दिन यह भीड़ हमें छोड़कर किसी और के पास चली जाती है, नतीज़तन कोई लोकप्रिय स्टार शराब में डूब जाता है, कोई आयकन प्रसिद्धि वापिस पाने के लिए अजीबोग़रीब हरक़तें शुरु कर देता है.......
इससे भी बुरी स्थिति तब होती है जब हमारी ही बनाई भीड़ हमारे खि़लाफ़ होने लगती है। और भी ख़राब तब यह होता है कि हम ख़ुद कुछ समझने के बजाय दूसरों को समझाना शुरु कर देते हैं......
(जारी)
-संजय ग्रोवर
13-07-2017
कोई पत्रकार उससे नहीं पूछता कि यह रिश्वत किस वजह से मांगी गई है !? वह रिश्वत मांगनेवाले का नाम नहीं बताता।
वही टीवी चैनल बताते हैं कि यह व्यक्ति ख़ुद भी रेज़ीडेंशियल इलाक़े में कमर्शियल दफ़्तर बनाने के इरादे से अवैद्य निर्माण करवा रहा था। थोड़े दिन चैनलों पर समाचार चलता है, छोटी-मोटी बहसें चलतीं हैं, नतीज़तन वह आदमी और ज़्यादा मशहूर हो जाता है।
जनता और बुद्धिजीवियों में से कोई नहीं पूछता कि आपने नाम नहीं बताया, आपके अपने अवैद्य निर्माण की हक़ीक़त क्या है ?
उस प्रसिद्ध आदमी के टीवी कार्यक्रम में आए दिन उस ट्वीट की चर्चा उपलब्धि की तरह होती है। भीड़ हंसती है, तालियां बजाती है।
इस भीड़ से किसीको कोई शिक़ायत नहीं है।
अतार्किक मानसिकता अतार्किक भीड़ का निर्माण करती है। अतार्किक भीड़ अतार्किक महापुरुष और सेलेब्रिटी बनाती है।
भीड़ हमारे लिए तालियां बजाती है, हमारे घर के नीचे खड़े होकर हाथ हिलाती है, हमारे ऑटोग्राफ़ लेती है, हमें माला पहनाती है, हमारा सम्मान करती है......
जब तक यह सब होता है, भीड़ हमें महान लगती है, हम नहीं पूछते, नहीं सोचते कि यह सब ठीक है या ग़लत, इससे समाज या दूसरे व्यक्तियों का फ़ायदा होगा या नुकसान.....
इस भीड़ को अंततः झेलता कौन है ?
मेरे आसपास जब भी कोई अवैद्य निर्माण होता है और मैं उसे रुकवाने की कोशिश करता हूं तो मुझे हमेशा यही
तर्क मिलता है कि सब यही कर रहे हैं तो फिर तुम अकेले कैसे सही हो ?
मेरा मन होता है, संभवतः एक बार मैंने कहा भी कि अगर सब बलात्कार करने लगें तो क्या मैं भी शुरु कर दूं !? कलको सब छेड़खानी करने तुम्हारे घर आएंगे तो तुम चाय-पेप्सी के साथ ख़ुद भी उनमें शामिल हो जाओंगे ?
अवैद्य निर्माणकर्ताओं की यह बात तो सही ही होती है कि ‘सब यही कर रहे हैं’। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, साहित्यकार, पत्रकार, बंगाली, मद्रासी, पंजाबी, गुजराती, आस्तिक, नास्तिक, ब्राहमण, दलित, मार्क्सवादी, राष्ट्रवादी.........कौन है जो यह नहीं करता ?
हममें से किसने इस भीड़ पर ऐतराज़ किया ?
भीड़ हमें भगवान बनाती है और हम ही उसे इसके लिए तैयार करते हैं। अगर कोई भीड़ की ज़्यादा परवाह नहीं करता तो ‘महापुरुष’ तक उसे घमंडी, सनकी, पागल तक करार देने लगते हैं।
जिस वक़्त भीड़ के खि़लाफ़ एक भीड़ विरोध करने खड़ी होती है ठीक उसी वक़्त दो फ़िल्मी सितारों के घरों के नीचे ‘युवाओं’ की भीड़ हाथ हिलाने और उनके दर्शन के लिए इंतज़ार कर रही होती है।
क्या हमने कभी इस भीड़ के बारे में सोचा ? क्या यह भीड़ बहुत सोच-समझकर आती है ? क्या ये बहुत तार्किक लोग हैं ? हममें से कई लोग इसपर सोचने तक को तैयार नहीं हैं, वजह बड़ी साफ़ है कि उन्हें भी इसी तरह लोकप्रिय होना है, महापुरुष, सेलेब्रिटी, आयकन और आयडल बनना है।
किसी दिन यह भीड़ हमें छोड़कर किसी और के पास चली जाती है, नतीज़तन कोई लोकप्रिय स्टार शराब में डूब जाता है, कोई आयकन प्रसिद्धि वापिस पाने के लिए अजीबोग़रीब हरक़तें शुरु कर देता है.......
इससे भी बुरी स्थिति तब होती है जब हमारी ही बनाई भीड़ हमारे खि़लाफ़ होने लगती है। और भी ख़राब तब यह होता है कि हम ख़ुद कुछ समझने के बजाय दूसरों को समझाना शुरु कर देते हैं......
(जारी)
-संजय ग्रोवर
13-07-2017
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