कभी एफ़ एम पर, कभी टीवी पर, कभी-कभी खोलो तब भी महानता दिख ही जाती है। कोई बता रहा है कि हरा डिब्बा, नीला डिब्बा, दो डब्बे कचरे के लिए रखो वरना लोग तुम्हे ख़राब नज़र से देखेंगे, इज़्ज़त ख़राब हो जाएगी.....। कोई समझा रहा है नहाना बहुत ज़रुरी है, पीने को पानी न हो तब भी नहाना ज़रुर चाहिए, पॉज़ीटिव एनर्जी पैदा होती है, पवित्रता आती है। सबसे ज़्यादा सामाजिक कार्य आजकल टट्टी के फ़ील्ड में चल रहा है। हर कोई पाख़ाने का महत्व समझाने में लगा है, सेलेब्रिटी वगैरह बताते हैं टट्टी हमेशा इनडोर करनी चाहिए, आउटडोर करने से बदनामी होती है, इमेज ख़राब होती है। लेकिन जिसके घर में जगह नहीं है, पाख़ाना बनाने का पैसा नहीं है, वह आपके कहने से टट्टी पेट में रोक भी ले, तो ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या मिलेगा ? अच्छी इमेज ? और क्या ? पेट में बीमारियां लेकर वो उस इमेज का करेगा क्या ? उसे क्या दो-चार विज्ञापनों में काम मिल जाएगा ?
यह अच्छी बात है कि आप लोगों को समझा सकते हैं, लेकिन आप ग़रीबों को कुछ ज़्यादा ही समझाते हैं। क्या इसलिए कि वे समझाने के लिए ही पैदा हुए हैं ? समझाने के लिए और भी तो लोग हैं। अभी तीन दिन पहले मैंने एक पार्क में बड़े-बड़े तंबू लगे देखे, पूरे सर्कस के जैसे इंतज़ाम। वहां किसी साध्वी के प्रवचन की आवाज़ आ रही थी। दूर-दूर तक लाउडस्पीकर लगे थे। फिर एक दिन छोड़कर फिर वहां से निकला तो देखा कथा तो संपन्न हो गई थी पर सामान अभी भी पूरे पार्क में बिखरा था। कौन इसे साफ़ करेगा ? ज़ाहिर है बाबा और साध्वियां तो करेंगे नहीं, वे तो निकल गए। तो क्या उनके भक्त साफ़ करेंगे ? क्या आपको लगता है कि वे करते होंगे ? आपको मालूम ही है कि सफ़ाई आखि़रकार किसको करनी पड़ती है।
आए दिन यहां लोग बच्चों के खेलने के लिए बनाए गए पार्कों में घास रौंदकर बाबा बुलाते हैं, वहां शादियां कराते हैं, रातोरात मंदिर बना देते हैं, मेले लगा देते हैं, कौन इन्हें परमिशन देता है ? कौन से क़ानून और नियम से यह होता है ? खुले में शौच करना इतना बुरा है तो खुले में पार्क रौंद कर लाउडस्पीकर पर चिल्लाना कैसे बेहतर है ? शौच करनेवाले अकसर ग़रीब, अनपढ़ और मजबूर लोग हैं, कथा करने और सुननेवाले अकसर संपन्न और पढ़े-लिखे लोग हैं। लेकिन इनको समझाने कोई नहीं आता, ये जो चाहते हैं करते हैं। धार्मिक हो या धर्मनिरपेक्ष, इनके मामले में कोई नहीं पड़ता।
कमज़ोर को समझाना आसान काम है, बिलकुल किसी फ़िल्म के बनावटी ऐक्शन सीन में पचास गुंडों को दीवार में गड़ढा करके उसके पार फेंक देने जैसा आसान काम, लेकिन देश के तथाकथित धार्मिक ऊंचे और पवित्र वर्ग पर उंगली उठाना मुश्क़िल काम है। यह इसलिए भी मुश्क़िल है क्योंकि यहां प्रगतिशील लोगों की जगह दहेज़बाज़ अंधविश्वासियों और कट्टरपंथियों ने हड़प रखी है।
ऐसे में स्वच्छता के नाम पर आए दिन ग़रीब लोगों को हड़काने की तथाकथित स्वच्छता को एक वीभत्स स्वच्छता ही कहा जा सकता है।
-संजय ग्रोवर
18-06-2017
यह अच्छी बात है कि आप लोगों को समझा सकते हैं, लेकिन आप ग़रीबों को कुछ ज़्यादा ही समझाते हैं। क्या इसलिए कि वे समझाने के लिए ही पैदा हुए हैं ? समझाने के लिए और भी तो लोग हैं। अभी तीन दिन पहले मैंने एक पार्क में बड़े-बड़े तंबू लगे देखे, पूरे सर्कस के जैसे इंतज़ाम। वहां किसी साध्वी के प्रवचन की आवाज़ आ रही थी। दूर-दूर तक लाउडस्पीकर लगे थे। फिर एक दिन छोड़कर फिर वहां से निकला तो देखा कथा तो संपन्न हो गई थी पर सामान अभी भी पूरे पार्क में बिखरा था। कौन इसे साफ़ करेगा ? ज़ाहिर है बाबा और साध्वियां तो करेंगे नहीं, वे तो निकल गए। तो क्या उनके भक्त साफ़ करेंगे ? क्या आपको लगता है कि वे करते होंगे ? आपको मालूम ही है कि सफ़ाई आखि़रकार किसको करनी पड़ती है।
आए दिन यहां लोग बच्चों के खेलने के लिए बनाए गए पार्कों में घास रौंदकर बाबा बुलाते हैं, वहां शादियां कराते हैं, रातोरात मंदिर बना देते हैं, मेले लगा देते हैं, कौन इन्हें परमिशन देता है ? कौन से क़ानून और नियम से यह होता है ? खुले में शौच करना इतना बुरा है तो खुले में पार्क रौंद कर लाउडस्पीकर पर चिल्लाना कैसे बेहतर है ? शौच करनेवाले अकसर ग़रीब, अनपढ़ और मजबूर लोग हैं, कथा करने और सुननेवाले अकसर संपन्न और पढ़े-लिखे लोग हैं। लेकिन इनको समझाने कोई नहीं आता, ये जो चाहते हैं करते हैं। धार्मिक हो या धर्मनिरपेक्ष, इनके मामले में कोई नहीं पड़ता।
कमज़ोर को समझाना आसान काम है, बिलकुल किसी फ़िल्म के बनावटी ऐक्शन सीन में पचास गुंडों को दीवार में गड़ढा करके उसके पार फेंक देने जैसा आसान काम, लेकिन देश के तथाकथित धार्मिक ऊंचे और पवित्र वर्ग पर उंगली उठाना मुश्क़िल काम है। यह इसलिए भी मुश्क़िल है क्योंकि यहां प्रगतिशील लोगों की जगह दहेज़बाज़ अंधविश्वासियों और कट्टरपंथियों ने हड़प रखी है।
ऐसे में स्वच्छता के नाम पर आए दिन ग़रीब लोगों को हड़काने की तथाकथित स्वच्छता को एक वीभत्स स्वच्छता ही कहा जा सकता है।
-संजय ग्रोवर
18-06-2017
No comments:
Post a Comment