लोगों को ग़ुलाम बनाने के लिए गंदी और भद्दी प्रथाएं और मान्यताएं बनानेवाले किसी व्यक्ति ने शायद ही कभी यह कहा हो कि मैं कोई असामाजिक आदमी हूं और यह काम समाज के खि़लाफ़ कर रहा हूं। वर्णव्यवस्था, सतीप्रथा, छुआछूत, विवाह, दहेज, ऊंचनीच, छोटा-बड़ा, अंधविश्वास, भगवान, साकार, निराकार ..... सब कुछ सामाजिकता की ही आड़ में बनाया गया। तथाकथित सामाजिकता से डरनेवाले किसी व्यक्ति से इनको बदलने की आशा रखना भी बहुत समझदारी या व्यवहारिकता की बात नहीं लगती। राजेंद्र यादव के बारे में बात करते हुए एक बार मुझसे किसीने कहा कि ऐसे लोग क्या कर पाएंगे जो अपना परिवार ही नहीं पाल पाए। मैं उस वक़्त व्यस्त था, मैंने इतना ही कहा कि परिवार तो गांधीजी भी नहीं पाल पाए, क्या आपको उनसे भी यह शिक़ायत है!? (राजेंद्र यादव परिवार नहीं पाल पाए, इससे भी मैं असहमत हूं)
क्या परिवार चलाना वाक़ई इतनी महान बात है ? बिलकुल भी नहीं। मैं समझता हूं समाज बदलने, ईमानदारी और मौलिकता से जीने की तुलना में परिवार चलाना निहायत ही टुच्ची कारग़ुज़ारियों का जोड़ है। परिवार चलाने के नाम पर लोग अकसर अपनी बेईमानियों, कायरता, पाखंड, खोखलेपन आदि को पूरी बेशर्मी से वैद्य ठहराते चले जाते हैं-‘हम तो बाल-बच्चे वाले आदमी(!) हैं, हेंहेंहें, क्या करें....’। मुझे समझ में नहीं आता कि जिन लड़कियों को आपने शादी के नाम पर यूंही कहीं भी ठेल देना था, उन्हें पैदा करने की ऐसी क्या मजबूरी थी !? जगह-जगह बच्चे भूखे-नंग-धड़ंग घूम रहे हैं, ऐसे में आपका परिवार, आपके बच्चे न होते तो दुनिया ख़त्म हुई जा रही थी क्या ? दिखावटी सामाजिकता में आप ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और न जाने क्या-क्या पेले जा रहे हैं और आपके पैदा किए व्यवहारिक बच्चे आप ही के बनाए फ़्लाईओवरों को तोड़े डाल रहे हैं। जिसके नीचे दबकर दूसरे व्यवहारिक लोगों के सौ-दो सौ व्यवहारिक बच्चे मर जाते हैं। ऐसे व्यवहारिक आप और आपके बच्चे न होते तो क्या यह ज़्यादा व्यवहारिक और बेहतर न होता ?
कई परिवारवादी कहते हैं कि भई क्या करें, बेटी का दहेज देना है, यह-वो करना है और इसी आड़ में अपने-परायों सभी का बेदर्दी से खून चूसते, जेब काटते चले जाते हैं। लड़के-लड़की के रिश्ते के नाम पर तमाम भद्दी-भद्दी हरक़तें, परस्पर लूटपाट, अमानवीय तलवा-चाटी और चटवाई वगैरह को भी संघर्ष और महानता वगैरह का दर्ज़ा दे दिया जाता है। कथित-काल्पनिक किन्हीं पवित्रताओं और महानताओं के नाम पर ऐसी-ऐसी वास्तविक गंदगी बिखेरी जाती हैं कि अगली कई पीढ़ियों के लिए उन्हें समेटना मुश्क़िल हो जाता है। पीढ़ियों की पीढ़ियां अपने महान पुरख़ों की गंदगी(मसलन दहेज, मर्दवाद, व्यवहारिकता के नाम पर बेईमानीवाद आदि) को ढोते-ढोते मर जातीं हैं। मगर इन परिवार चलानेवाले महानों के लिए पत्थर की लकीरें और उनसे जुड़ा अपना अहंकार इतना महान और महत्वपूर्ण होता है कि इन्हें क़तई किसीपर कोई रहम नहीं आता।
कई लोग दो-चार लड़कियां पैदा करके ज़िम्मेदारी उनके उन भाईयों पर डाल देते हैं जिन्हें पैदा होते वक़्त मालूम ही नहीं होता कि उन पर क्या-क्या थोपा जानेवाला है, तो कई लोग लड़के पैदा करके उनकी देखभाल की ज़िम्मेदारी इससे अनजान बहिनों पर चेप देते हैं। कई लोग एक बार बेटियों की शादियां करके दोबारा पता करने ही नहीं जाते कि बाद में वे किस दशा में रह रहीं हैं या जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं। इन सब हरक़तों को मैं तानाशाही और धोखाधड़ी का दर्ज़ा देना चाहता हूं, इस तरह की पारिवारिकता अधूरी, ग़ैरज़िम्मेदार, पोंगी और पलायनवादी पारिवारिकता है।
नास्तिकता के लिए किसी भी सामाजिक मान्यता को वैसे का वैसा स्वीकार कर लेना क़तई अजीब बात है। सामाजिकता वैसे भी दुनिया के सभी संप्रदायों/समूहों के लिए बिलकुल एक जैसी नहीं होती। ब्राहमणवाद के लिए सामाजिकता, दूसरों का प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष शोषण है और अगर दूसरे भी उसी सामाजिकता को ज्यों का त्यों अपनाएंगे तो उनके लिए यह सामाजिकता नहीं लगभग आत्महत्या जैसी बात होगी ; जबकि मैं देखता हूं कि ब्राहमणवाद तो अपनी बनाई प्रथाओं को सकारात्मकता और सृजनात्मकता भी बता देता है। ऐसे में नास्तिकता को अपनी अलग सामाजिकता पैदा करनी होती है, मौलिक जीवनशैली विकसित करनी होती है। इसमें डरा हुआ आदमी ज़्यादा आगे तक नहीं जा सकता, थोड़ा साहस तो करना ही पड़ता है। भीड़ और कुप्रथाओं से डरकर कोई निर्णय लेना नास्तिक की सामाजिकता तो बिलकुल भी नहीं हो सकती, उसमें सामाजिक बदलाव की बात तो दूर, अपने लिए राहत का एक कोना बनाना भी असंभव-सी बात है। नास्तिक की व्यवहारिकता दूसरों की व्यवहारिकता जैसी कैसे हो सकती है ? यही तो उसमें और दूसरों में बुनियादी फ़र्क़ है। दूसरों के लिए तो मंदिर जाना भी व्यवहारिकता है, नास्तिक के लिए यह पूरी तरह वक़्त की बर्बादी है। छीना-छपटी, लेन-देन, टांगमारी, सेटिंग-जुगाड़ दूसरों के लिए एक व्यवहारिक समाज हो सकता है लेकिन नास्तिक इसमें एक सुनियोजित आपराधिक माफ़िया को भांप सकता है।
हां, कई लोगों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति इतनी ख़राब होती है कि वे नास्तिकता को दुनियादारी में जोड़ें तो शायद उनके लिए रोज़ का खाना-कमाना मुश्क़िल हो जाए। उनकी समस्या भी समझ में आती है और सहानुभूति भी होती है। मगर ऐसे में कोई व्यक्ति अपनी डरी हुई मनस्थिति में लिए गए किसी निर्णय को सभीके लिए सिद्धांत या आदर्श जैसा कुछ बनाने की कोशिश करे, यह भी ठीक नहीं है। इससे तो लगता है कि आप इतने अहंकारी आदमी हैं कि आपको लग रहा है दुनिया में आप अकेले ही बहादुर पैदा हुए थे, आप सरेंडर कर गए तो दूसरा कोई साहसी पैदा होने की संभावनाएं ही जैसे ख़त्म हो गईं, अब किसीको इस बारे में सोचना ही नहीं चाहिए। यह क़तई अव्यवहारिक सोच है क्योंकि दुनिया में दुनिया बदलनेवाले लोग हमेशा ही पैदा होते रहे हैं और कुछ न कुछ बदलाव करते रहे हैं, कबीर, ग़ैलीलियो, तसलीमा, राजेंद्र यादव, ओशो जैसे लोग किसी संस्थाविशेष से पढ़े-पढ़ाए नहीं थे, मगर ऐसे कई लोगों ने बड़े बदलाव किए हैं या उनके लिए माहौल बनाया है, बीज बोए हैं। तसलीमा ने अपना देश छोड़ा, राजेंद्र यादव आए दिन वामपंथी ब्राहमणों के अजीबोग़रीब विवादों का शिकार होते थे, कबीर पत्थर खाया करते थे, ओशो के बारे में आधारहीन, लगभग अफ़वाहनुमां, ग़लत तथ्यों से भरे विश्लेषण(!) आज भी देखने को मिल जाते हैं। कोई भी बदलाव सेटिंग-वैटिंग करते हुए, ट्राफ़ी-ऑफ़ी जुगाड़ते हुए जवान नहीं होता। उसमें नुकसान और ख़तरे क़दम-क़दम पर साथ चलते हैं। मगर इस बदलती हुई दुनिया में जहां विचार, चेतना और तर्क नया साहस और बड़ा दायरा पा रहे हैं, बदलाव की संभावनाऐं बढ़ रहीं हैं।
मुझे नहीं लगता कि आज के माहौल में नास्तिक को घबराना चाहिए।
यूं हम लिखते ही रहे हैं कि इस ग्रुप में आकर आर्थिक फ़ायदे और टीवी कवरेज आदि के लालच में न पड़ें, बल्कि कुछ ख़तरों, कुछ ग़ाली-ग़लौच, कुछ अफ़वाहों, क़िस्से-कहानियों को झेलने के लिए हमेशा तैयार रहें। यहां से जाने का रास्ता भी 24 घंटे ख़ुला ही रहता है। संख्या की सजावट में हमारी ज़्यादा दिलचस्पी कभी नहीं रही।
व्यवहारिकता के नाम पर अगर आपको नास्तिकता के साथ खड़े दिखने में डर और नुक़सान लगता है, तो आप कभी भी विदा ले सकते हैं, हम बिलकुल बुरा नहीं मानते।
जिनको यहां कोई सार्थकता दिखाई देती है, आराम से यहां रहें।
-संजय ग्रोवर
22-04-2016
क्या परिवार चलाना वाक़ई इतनी महान बात है ? बिलकुल भी नहीं। मैं समझता हूं समाज बदलने, ईमानदारी और मौलिकता से जीने की तुलना में परिवार चलाना निहायत ही टुच्ची कारग़ुज़ारियों का जोड़ है। परिवार चलाने के नाम पर लोग अकसर अपनी बेईमानियों, कायरता, पाखंड, खोखलेपन आदि को पूरी बेशर्मी से वैद्य ठहराते चले जाते हैं-‘हम तो बाल-बच्चे वाले आदमी(!) हैं, हेंहेंहें, क्या करें....’। मुझे समझ में नहीं आता कि जिन लड़कियों को आपने शादी के नाम पर यूंही कहीं भी ठेल देना था, उन्हें पैदा करने की ऐसी क्या मजबूरी थी !? जगह-जगह बच्चे भूखे-नंग-धड़ंग घूम रहे हैं, ऐसे में आपका परिवार, आपके बच्चे न होते तो दुनिया ख़त्म हुई जा रही थी क्या ? दिखावटी सामाजिकता में आप ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और न जाने क्या-क्या पेले जा रहे हैं और आपके पैदा किए व्यवहारिक बच्चे आप ही के बनाए फ़्लाईओवरों को तोड़े डाल रहे हैं। जिसके नीचे दबकर दूसरे व्यवहारिक लोगों के सौ-दो सौ व्यवहारिक बच्चे मर जाते हैं। ऐसे व्यवहारिक आप और आपके बच्चे न होते तो क्या यह ज़्यादा व्यवहारिक और बेहतर न होता ?
कई परिवारवादी कहते हैं कि भई क्या करें, बेटी का दहेज देना है, यह-वो करना है और इसी आड़ में अपने-परायों सभी का बेदर्दी से खून चूसते, जेब काटते चले जाते हैं। लड़के-लड़की के रिश्ते के नाम पर तमाम भद्दी-भद्दी हरक़तें, परस्पर लूटपाट, अमानवीय तलवा-चाटी और चटवाई वगैरह को भी संघर्ष और महानता वगैरह का दर्ज़ा दे दिया जाता है। कथित-काल्पनिक किन्हीं पवित्रताओं और महानताओं के नाम पर ऐसी-ऐसी वास्तविक गंदगी बिखेरी जाती हैं कि अगली कई पीढ़ियों के लिए उन्हें समेटना मुश्क़िल हो जाता है। पीढ़ियों की पीढ़ियां अपने महान पुरख़ों की गंदगी(मसलन दहेज, मर्दवाद, व्यवहारिकता के नाम पर बेईमानीवाद आदि) को ढोते-ढोते मर जातीं हैं। मगर इन परिवार चलानेवाले महानों के लिए पत्थर की लकीरें और उनसे जुड़ा अपना अहंकार इतना महान और महत्वपूर्ण होता है कि इन्हें क़तई किसीपर कोई रहम नहीं आता।
कई लोग दो-चार लड़कियां पैदा करके ज़िम्मेदारी उनके उन भाईयों पर डाल देते हैं जिन्हें पैदा होते वक़्त मालूम ही नहीं होता कि उन पर क्या-क्या थोपा जानेवाला है, तो कई लोग लड़के पैदा करके उनकी देखभाल की ज़िम्मेदारी इससे अनजान बहिनों पर चेप देते हैं। कई लोग एक बार बेटियों की शादियां करके दोबारा पता करने ही नहीं जाते कि बाद में वे किस दशा में रह रहीं हैं या जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं। इन सब हरक़तों को मैं तानाशाही और धोखाधड़ी का दर्ज़ा देना चाहता हूं, इस तरह की पारिवारिकता अधूरी, ग़ैरज़िम्मेदार, पोंगी और पलायनवादी पारिवारिकता है।
नास्तिकता के लिए किसी भी सामाजिक मान्यता को वैसे का वैसा स्वीकार कर लेना क़तई अजीब बात है। सामाजिकता वैसे भी दुनिया के सभी संप्रदायों/समूहों के लिए बिलकुल एक जैसी नहीं होती। ब्राहमणवाद के लिए सामाजिकता, दूसरों का प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष शोषण है और अगर दूसरे भी उसी सामाजिकता को ज्यों का त्यों अपनाएंगे तो उनके लिए यह सामाजिकता नहीं लगभग आत्महत्या जैसी बात होगी ; जबकि मैं देखता हूं कि ब्राहमणवाद तो अपनी बनाई प्रथाओं को सकारात्मकता और सृजनात्मकता भी बता देता है। ऐसे में नास्तिकता को अपनी अलग सामाजिकता पैदा करनी होती है, मौलिक जीवनशैली विकसित करनी होती है। इसमें डरा हुआ आदमी ज़्यादा आगे तक नहीं जा सकता, थोड़ा साहस तो करना ही पड़ता है। भीड़ और कुप्रथाओं से डरकर कोई निर्णय लेना नास्तिक की सामाजिकता तो बिलकुल भी नहीं हो सकती, उसमें सामाजिक बदलाव की बात तो दूर, अपने लिए राहत का एक कोना बनाना भी असंभव-सी बात है। नास्तिक की व्यवहारिकता दूसरों की व्यवहारिकता जैसी कैसे हो सकती है ? यही तो उसमें और दूसरों में बुनियादी फ़र्क़ है। दूसरों के लिए तो मंदिर जाना भी व्यवहारिकता है, नास्तिक के लिए यह पूरी तरह वक़्त की बर्बादी है। छीना-छपटी, लेन-देन, टांगमारी, सेटिंग-जुगाड़ दूसरों के लिए एक व्यवहारिक समाज हो सकता है लेकिन नास्तिक इसमें एक सुनियोजित आपराधिक माफ़िया को भांप सकता है।
हां, कई लोगों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति इतनी ख़राब होती है कि वे नास्तिकता को दुनियादारी में जोड़ें तो शायद उनके लिए रोज़ का खाना-कमाना मुश्क़िल हो जाए। उनकी समस्या भी समझ में आती है और सहानुभूति भी होती है। मगर ऐसे में कोई व्यक्ति अपनी डरी हुई मनस्थिति में लिए गए किसी निर्णय को सभीके लिए सिद्धांत या आदर्श जैसा कुछ बनाने की कोशिश करे, यह भी ठीक नहीं है। इससे तो लगता है कि आप इतने अहंकारी आदमी हैं कि आपको लग रहा है दुनिया में आप अकेले ही बहादुर पैदा हुए थे, आप सरेंडर कर गए तो दूसरा कोई साहसी पैदा होने की संभावनाएं ही जैसे ख़त्म हो गईं, अब किसीको इस बारे में सोचना ही नहीं चाहिए। यह क़तई अव्यवहारिक सोच है क्योंकि दुनिया में दुनिया बदलनेवाले लोग हमेशा ही पैदा होते रहे हैं और कुछ न कुछ बदलाव करते रहे हैं, कबीर, ग़ैलीलियो, तसलीमा, राजेंद्र यादव, ओशो जैसे लोग किसी संस्थाविशेष से पढ़े-पढ़ाए नहीं थे, मगर ऐसे कई लोगों ने बड़े बदलाव किए हैं या उनके लिए माहौल बनाया है, बीज बोए हैं। तसलीमा ने अपना देश छोड़ा, राजेंद्र यादव आए दिन वामपंथी ब्राहमणों के अजीबोग़रीब विवादों का शिकार होते थे, कबीर पत्थर खाया करते थे, ओशो के बारे में आधारहीन, लगभग अफ़वाहनुमां, ग़लत तथ्यों से भरे विश्लेषण(!) आज भी देखने को मिल जाते हैं। कोई भी बदलाव सेटिंग-वैटिंग करते हुए, ट्राफ़ी-ऑफ़ी जुगाड़ते हुए जवान नहीं होता। उसमें नुकसान और ख़तरे क़दम-क़दम पर साथ चलते हैं। मगर इस बदलती हुई दुनिया में जहां विचार, चेतना और तर्क नया साहस और बड़ा दायरा पा रहे हैं, बदलाव की संभावनाऐं बढ़ रहीं हैं।
मुझे नहीं लगता कि आज के माहौल में नास्तिक को घबराना चाहिए।
यूं हम लिखते ही रहे हैं कि इस ग्रुप में आकर आर्थिक फ़ायदे और टीवी कवरेज आदि के लालच में न पड़ें, बल्कि कुछ ख़तरों, कुछ ग़ाली-ग़लौच, कुछ अफ़वाहों, क़िस्से-कहानियों को झेलने के लिए हमेशा तैयार रहें। यहां से जाने का रास्ता भी 24 घंटे ख़ुला ही रहता है। संख्या की सजावट में हमारी ज़्यादा दिलचस्पी कभी नहीं रही।
व्यवहारिकता के नाम पर अगर आपको नास्तिकता के साथ खड़े दिखने में डर और नुक़सान लगता है, तो आप कभी भी विदा ले सकते हैं, हम बिलकुल बुरा नहीं मानते।
जिनको यहां कोई सार्थकता दिखाई देती है, आराम से यहां रहें।
-संजय ग्रोवर
22-04-2016
बेहतरीन विचार। मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ।
ReplyDelete