अकसर लोग कहते हैं कि झूठ को सौ बार बोला जाए तो सच लगने लगता है।
लेकिन क्या यह सिर्फ़ बोलने वाले पर निर्भर है ?
क़तई नहीं।
यह सुननेवाले पर भी उतना ही निर्भर है। सुननेवाला या तो सही स्रोतों से जानने की कोशिश नहीं करता या वह बोलनेवाले पर अंधा विश्वास करता है या उसमें ख़ुदमें आत्मविश्वास की कमी होती है या वह भीड़/संख्या से प्रभावित होने का आदी होता है या वह ख़ुद भी मिलते-जुलते ग़लत संस्कारों, मान्यताओं, शिक्षाओं के बीच पला-बढ़ा होता है।
ज़रुरी नहीं कि झूठ को सौ बार बोला जाए, इससे ज़्यादा असरमंद तरीक़ा तो मैंने यह देखा है कि दो-चार, दस-बीस, सौ-पचास लोग मिलकर झूठ बोलते हैं और एक-दो बार में काम हो जाता है।
झूठ को सौ बार बोलने की आलोचना करनेवाले लोग ख़ुद सच को सौ दफ़ा बोलने की कोशिश अपनी पूरी ज़िंदगी में कितनी बार करते हैं ?
अकसर यह होता है कि ज़्यादा शातिर झूठ को हम सच समझ लेते हैं और कम शातिर को झूठ।
-संजय ग्रोवर
28-02-2016
लेकिन क्या यह सिर्फ़ बोलने वाले पर निर्भर है ?
क़तई नहीं।
यह सुननेवाले पर भी उतना ही निर्भर है। सुननेवाला या तो सही स्रोतों से जानने की कोशिश नहीं करता या वह बोलनेवाले पर अंधा विश्वास करता है या उसमें ख़ुदमें आत्मविश्वास की कमी होती है या वह भीड़/संख्या से प्रभावित होने का आदी होता है या वह ख़ुद भी मिलते-जुलते ग़लत संस्कारों, मान्यताओं, शिक्षाओं के बीच पला-बढ़ा होता है।
ज़रुरी नहीं कि झूठ को सौ बार बोला जाए, इससे ज़्यादा असरमंद तरीक़ा तो मैंने यह देखा है कि दो-चार, दस-बीस, सौ-पचास लोग मिलकर झूठ बोलते हैं और एक-दो बार में काम हो जाता है।
झूठ को सौ बार बोलने की आलोचना करनेवाले लोग ख़ुद सच को सौ दफ़ा बोलने की कोशिश अपनी पूरी ज़िंदगी में कितनी बार करते हैं ?
अकसर यह होता है कि ज़्यादा शातिर झूठ को हम सच समझ लेते हैं और कम शातिर को झूठ।
-संजय ग्रोवर
28-02-2016
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