4.17 मिनट का यह वीडियो है। फ़ेसबुक पर कुछ लोगों ने इस सलाह के साथ लगाया कि इसे देखकर आपकी आंखें खुल जाएंगी। मैंने, देखा तो मुझे इसमें कोई ख़ास या नई बात नज़र नहीं आई। मैंने पूरा वीडियो ढूंढने की कोशिश की, क़रीब आधा घंटा लगाया, नहीं मिला। एक अन्य वीडियो मिला जो तकरीबन दस मिनट का था।
बहरहाल, कहीं पूरा वीडियो मिल गया और उसमें कुछ अलग निष्कर्ष निकलता दिखाई दिया तो हम दोबारा बात कर लेंगे। अभी इसीपर करते हैं।
यहां यह समझना मुश्क़िल है कि जावेद अख़्तर क्यों यह सफ़ाई दे रहे हैं कि ‘मैंने तो हमेशा कहा आयम एन अथीस्ट.....’, मगर यह स्पष्ट है कि बात पीके की चल रही है और फ़िल्म के निर्देशक राजू हिरानी भी वहीं कुर्सी डाले बैठे हैं। सोचने की बात है कि इससे पहले कब किसीको यह सफ़ाई देनी पड़ती थी कि वह नास्तिक है। यह माहौल नास्तिकता के खि़लाफ़ माना जाए कि उसके पक्ष में माना जाए !? यहां जावेद अख़्तर सहिष्णुता की बात करते हुए 1975 में बनी अपनी ‘शोले’ के उस दृश्य का हवाला दे रहे हैं कि किस तरह नायक एक मंदिर में भगवान की मूर्ति के पीछे छुपकर भगवान बनकर बोल रहा है। वे कहते हैं कि शायद आज मैं इस दृश्य को न लिखता। अब सोचने की बात यह है कि क्या ‘शोले’ अंधविश्वास के खि़लाफ़ और नास्तिकता के पक्ष में बनी कोई फ़िल्म थी !? क़तई नहीं। यह फ़िल्म बदले पर आधारित, नाटकीय दृश्यों से भरी एक साधारण फ़िल्म थी। इसे भी छोड़िए। क्या नायक इस दृश्य में अंधविश्वास हटाने की कोशिश कर रहा है ? क्या वह भगवान का न होना साबित कर रहा है ? बिलकुल भी नहीं। वह तो उसके होने के अंधविश्वास का लाभ उठा रहा है। यह लाभ उसे मिल रहा है यह इसीसे पता चलता है कि नायिका तुरंत इस पर विश्वास कर लेती है। यह दृश्य अंधविश्वास और भगवान के होने के पक्ष में है, उसके खि़लाफ़ नहीं। इसपर कोई भक्त क्यों ऐतराज़ करेगा ? वीडियो के इस टुकड़े से तो यही समझ में आता है कि वे ग़लत उदाहरण दे रहे हैं। वे और भी फ़िल्मों का उदाहरण देते हैं जिनमें से किसीमें कोई पात्र भगवान की मूर्ति उठाकर फ़ेंक देता है। ऐसी तो बहुत फ़िल्में बनी हैं। अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘नास्तिक’, 1954 में बनी ‘नास्तिक’, सुनील दत्त अभिनीत ‘रेलवे प्लेटफॉर्म’ ऐसी ही, या ऐसे ही कुछ दृश्यों वाली फ़िल्में हैं। मुद्दे की असली बात यह है कि ऐसी किसी फ़िल्म में भगवान के अस्तित्व से इंकार नहीं किया गया।
जावेद अख़्तर किस तरह के नास्तिक हैं यह तो वही बताएंगे, लेकिन इस तरह की जितनी फ़िल्में बनी हैं, वे भगवान के होने की पुष्टि करतीं हैं, वे किसीकी आंखें नहीं खोलती बल्कि जागते हुए लोगों को भी सुलाने की कोशिश करती लगतीं हैं। आंखें क्या वे तो खुले हुए दिमाग़ों को भी बंद कर देतीं हैं। जावेद यहां कह रहे हैं कि वे भगवान में विश्वास नहीं करते जबकि उन्हींके बराबर में बैठे राजू हिरानी कह रहे हैं कि फ़िल्म दो तरह के भगवानों के बारे में बताती है-एक, जिसे हमने बनाया है ; दूसरा, जिसने हमें बनाया है। और जैसाकि फ़िल्म में भी दिखाया गया है कि दूसरा वाला भगवान असली है। अब जावेद अख़्तर का इसपर क्या मानना है यह तो, अगर उन्होंने इसपर कुछ कहा है तो, बाक़ी वीडियो से ही पता लग सकता है। मेरी समझ में, जावेद अख़्तर की नास्तिकता(अगर वे नास्तिकता का मतलब भगवान के वजूद से इंकार करना मानते हैं) और राजू हिरानी के अंधविश्वास-विरोध का अंतर तो यहीं साफ़ हो जाता है।
पहले तो इस देश के ज़िम्मेदार प्रगतिशीलों और अंधविश्वास-विरोधियों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उनके नास्तिकता के अर्थ क्या हैं-भगवान को न मानना या मूर्ति और कर्मकांड को न मानना। अब जिन तालिबान की मूढ़ता का हवाला देकर जावेद प्रगतिशीलता का मतलब समझाने की कोशिश कर रहे हैं, मूर्तिपूजा तो वे भी नहीं करते। इससे उनको हासिल क्या हुआ ? असली समस्या सिर्फ़ मूर्तिपूजा नहीं है, असली समस्या है किसी निराकार, ग़ायब भगवान/ख़ुदा/शक्ति/गॉड के होने का समर्थन या फिर इसपर चुप्पी या गोलमोल बातें।
12-02-2016
असली समस्याएं हैं इस तरह की मान्यताएं कि कोई अदृश्य शक्ति या शक्तियां इस दुनिया को चलातीं हैं जो कि इंसान से कई गुना ज़्यादा ताक़तवर हैं, इंसान की उस/उनके सामने कोई औक़ात नहीं है, वह बेबस, मजबूर और कमज़ोर है, वह उनके हाथों की कठपुतली है, उसके बस का कुछ नहीं है जब तक कि वह उन तथाकथित शक्तिओं के आगे सिर न झुकाए, उनका अहसान न माने, उन अहसानों का बदला न चुकाए, उन तथाकथित शक्तिओं के होने को बेशर्त स्वीकार न कर ले। मूर्तियां, कर्मकांड, संस्कार, कलंडर, भजन, फ़िल्में, लेख आदि तो उन तथाकथित शक्तिओं के विज्ञापन या रीमाइंडर्स की तरह हैं। ‘भगवान सर्वशक्तिमान है’, ‘वह सर्वत्रविद्यमान है’, ‘उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती’, ‘उसके आगे किसीका बस नहीं चलता’, ‘उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं होता’, ‘उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता’, ‘जाको राखे साईयां’,.....जैसे प्रचलित और आम लोगों में स्वीकृत कहावतें और मुहावरे ही बताते हैं कि समस्या मूर्ति तक सीमित नहीं है। दूरदराज़ गांवों में ओझाओं द्वारा औरतों को उल्टा लटकाकर, आग में मिर्ची झोंककर उनका तथाकथित ‘भूत’ उतारना हो या ज्योतिषी द्वारा किसीका हाथ देखकर भविष्य बताते हुए पैसा झाड़ लेना हो, इन सबकी जड़ में मूर्ति नहीं बल्कि कुछ निराकार/ग़ायब/अदृश्य शक्तिओं पर आदमी का विश्वास है। उन तथाकथित निराकार शक्तियों पर स्पष्ट बातचीत के बिना हम काला जादू, मिडिलमैन और बाबावाद का कुछ कर पायेंगे, यह एक बचकाना ख़्याल ही लगता है। कट्टरपंथिओं को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप ऐसी या वैसी, कैसी शक्तियों को मानते हैं ; उनके लिए इतना काफ़ी है कि आप किसी अमानवीय यानि मानवता से इतर/ऊपर किसी रहस्यमय शक्ति में विश्वास करते हैं। तालिबान भी किसी मूर्ति की वजह से नहीं बल्कि किसी निराकार शक्ति में विश्वास की वजह से ही सब कुछ कर रहे हैं।
हालांकि उस वक़्त की स्टंट और कमर्शियल फ़िल्मों को हर समझदार दर्शक एक जैसी गंभीरता से लेता होगा, लगता तो नहीं है। फिर भी बात आई है तो ठीक से कर ही लेनी चाहिए कि मूर्ति के साथ भक्तों को इस तरह बातचीत करते शायद ही किसीने देखा होगा जैसा ‘शोले’ व अन्य फ़िल्मों में होता है। वे लोग भजन वग़ैरह गाते हैं, प्रसाद इत्यादि चढ़ाते हैं पर तेज़ आवाज़ में इस तरह बातचीत....! कुछ फ़िल्मों में तथाकथित नास्तिक नायक मंदिर में जाकर भगवान की मूर्ति से लड़ता है कि ‘मैं तुझे नहीं मानता, नहीं मानूंगा.....’ आदि-आदि। नास्तिकता का यह कांसेप्ट सिरे से ग़लत है। जो भगवान के अस्तित्व में ही विश्वास नहीं करता वह उससे लड़ने क्यों जाएगा !? यह तो फ़िल्मी नास्तिकता हुई। यहां यह ज़िक्र करना ज़रुरी है कि मैं 4-5 साल से यूट्यूब पर खोज रहा हूं, मुझे असली नास्तिकता पर आज तक न तो एक भी हिंदी गीत मिला है न एक भी हिंदी फ़िल्म। मेरी खोज में कमी हो सकती है पर यह अभी जारी है।
यह अनुमान लगाना भी अजीब लगता है कि शोले का वह दृश्य आज स्वीकृत न हो पाता। ‘पीके’ 2015 की रिलीज़ है। 2012 में ‘ओह माय गॉड’ रिलीज़ हुई थी जिसमें नास्तिक शब्द का ख़ुला इस्तेमाल है और परेश रावल मूर्तियों और बाबाओं के साथ कई बार, कई तरह की छेड़खानियां करते हैं। ‘पीकू’ जैसी फ़िल्म भी आजकल में ही रिलीज़ हुई है जिसमें एक बाप अपनी बेटी के सामने उसके सैक्स-संबंधों की चर्चा करता है। ‘तेरे बिन लादेन’ नाम की फ़िल्म का अगला भाग तैयार है। जैसे बोल्ड विषयों पर और बोल्ड संवादों के साथ आजकल फ़िल्में बन रहीं हैं, 1975 में सोचना भी मुश्क़िल रहा होगा। और मैं यह क़तई नहीं कह रहा कि इसका श्रेय किसी सरकार या विचारधारा को जाता है। मेरी सीमित समझ के अनुसार इसका श्रेय टैक्नोलॉजी को जाता है जिसने इंटरनेट, वाई-फ़ाई, स्मार्टफ़ोन, लैपटॉप जैसे माध्यम और उपकरण देकर इंसान को इंसान के क़रीब आने, नये विचार बांटने और एक-दूसरे की संस्कृतियों को जानने में मदद की है, उसकी सोच-समझ के दायरे को बड़ा कर दिया है।
जावेद यहां यह भी कह रहे हैं कि आपको तालिबान जैसा क्यों बनना चाहिए, क्यों नहीं आप उन्हें अपने जैसा बनाएं। लेकिन भारत की तथाकथित उदारवादी या प्रगतिशील विचारधाराओं से जुड़ी संस्थाएं/पार्टियां क्यों नहीं आर एस एस/मुस्लिम लीग को अपने जैसा बना पाईं ? क्या इसलिए कि उनमें बस उतना ही अंतर है जितना कि साकार और निराकार या ग़ायब और हाज़िर में होता है ?
यानि कि न के बराबर !
17-02-2016
-संजय ग्रोवर
(इस संदर्भ में ये लेख भी प्रासंगिक हैं- पहला, दूसरा)
(‘ओह माई गॉड’ की समीक्षा और नास्तिकता पर बनी कुछ अन्य हिंदी फ़िल्मों पर बात जल्दी ही)
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