Sunday 7 February 2016

भारतीय ‘प्रगतिशीलों’ का पसंदीदा संगठन आर एस एस एस

प्रगतिशील होने का दावा करनेवाले किसी युवा से आप पूछें कि वह कैसे कह सकता है कि वह प्रगतिशील है ; जवाब में वह कहे कि क्योंकि मेरे सामनेवाला कट्टरपंथी है इसलिए मैं प्रगतिशील हूं ; तो इस जवाब पर शायद आप हंसेंगे, हैरान होंगे या सर पीटेंगे। मगर ग़ौर से देखें तो भारत में प्रगतिशीलता के मायने लगभग यही हैं। और यहां सामनेवाला नब्बे पिच्यानवें प्रतिशत मामलों में आर एस एस एस होता है। जिस तरह आर एस एस एस को या किसी तथाकथित राष्ट्रवादी को अपना राष्ट्रप्रेम साबित करने के लिए पाक़िस्तान और मुसलमान की ज़रुरत पड़ती है ठीक उसी तरह से यहां के प्रगतिशीलों को अपनी प्रगतिशीलता बताने के लिए आर एस एस एस की ज़रुरत पड़ती है। कल्पना कीजिए कि पाक़िस्तान न हो तो आर एस एस एस क्या करेगा ? साथ ही यह भी कल्पना कीजिए कि आर एस एस एस न हो तो तथाकथित प्रगतिशील क्या करेगा ?

भारतीय बुद्धिजीविता की खोखली प्रगतिशीलता के प्राण आर एस एस एस जैसे संगठनों में ही बसते हैं। यहां के तथाकथित प्रगतिशील विद्वान आर एस एस एस की बातों को कितनी गंभीरता से लेते हैं, इसके दो ताज़ा-ताज़ा उदाहरण मुझे याद आ रहे हैं। पहला उदाहरण फ़िल्म पीके पर चले विवाद का है। आर एस एस एस ने कहा कि इसमें हिंदू धार्मिक प्रतीकों की हंसी उड़ाई गई है। भारत के तथाकथित प्रगतिशील तुरंत उसके साथ बहस में उलझ गए जैसेकि वे इसीका इंतज़ार कर रहे हों। हैरानी की बात यह है कि इन तथाकथित प्रगतिशीलों को यह क्यों नहीं दिखाई दिया कि उसी कथित फ़ासीवादी विचाराधारा के सेंसरबोर्ड ने ही यह फ़िल्म इन दृश्यों के साथ पास की है जिसे ये मुंह भर-भर कर ग़ालियां देते हैं !? दूसरी तरफ़ मेरे जैसा आदमी यह कह रहा था कि इस फ़िल्म में नया या क्रांतिकारी कुछ नहीं है, इसमें वही किया गया है जो कट्टरपंथ, अंधविश्वास और सांप्रदायिकता के विरोध के नाम पर पहले भी कुछ फ़िल्मों में किया जा चुका है। इस फ़िल्म के अंत में भी उसी कथित भगवान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया है जो वस्तुतः सारे अंधविश्वासों, झगड़ों और बेईमानियों की जड़ है (इस संदर्भ में ये लेख पढ़ें-पहला, दूसरा )। फ़ेसबुक और नास्तिक ग्रुप के कुछ युवाओं ने इस बात को समझा और बात आगे चलाई। लेकिन
राष्ट्रीय न्यूज़चैनलों पर इस मुद्दे का ज़िक्र कहीं दिखाई नहीं पड़ा। क्यों दिखाई नहीं पड़ा, इसपर आगे बात करेंगे।

दूसरी घटना पुरस्कार वापस लौटाने के हास्यास्पद प्रकरण की रही। मेरे जैसे लोग पूछ रहे थे कि एक सरकार से लिए पुरस्कार दूसरी को कैसे लौटाए जा सकते हैं, आप जैसे ‘स्वाभिमानी’ जो बात-बात में नेताओं, सेठों और राजनीति को ग़ालियां देते हैं, उन्हींके दिए पुरस्कार लेते ही क्यों हैं, आप जो एक सरकार को लोकतांत्रिकता की दृष्टि से लगभग अछूत मान रहे हैं, उसीके चैनलों पर बहसों में दिखते हुए ख़ुश कैसे हो सकते हैं, पुरस्कार आपने लौटाए इसका सबूत क्या है.........आदि-आदि (इस संदर्भ में यह लेख पढ़ें)। इसमें भी किसीकी रुचि नहीं दिखाई दी। वे लोग तो आर एस एस एस के ‘महत्वपूर्ण’ सवालों के जवाब देनें में लगे हुए थे।

सवाल यह है कि ये लोग दूसरे या दूसरों के प्रश्नों को छोड़ आर एस एस एस के लचर प्रश्नों में इतनी रुचि क्यों लेते हैं ? दो-तीन बातें समझ में आती हैं-एक यह कि इनका बौद्धिक स्तर ही इतना है कि इन्हें आर एस एस एस से ही बहस में आसानी दिखाई देती है। दूसरी, इन्हें कुछ प्रतीकों, बैनरों, कपड़ों, भाषाओं, भंगिमाओं के फ़र्क़ के चलते अपने प्रगतिशील होने का भ्रम हो गया है, दरअसल इनमें और आर एस एस एस में उन्नीस-बीस से ज़्यादा का अंतर नहीं है। तीसरी, भारत में ज़्यादातर संस्थाओं के शीर्ष पर ब्राहमणवाद बैठा हुआ है और अलग-अलग मुंहों से वही अपनी बात कह रहा होता है। चौथी, इनका एक निश्चित एजेंडा है और ये ऐसे हर व्यक्ति, विचार, तथ्य और तर्क से घबराते हैं जो उस एजेंडा के बाहर जाकर, समस्या की जड़ की तरफ़ इशारा कर रहा होता है। पांचवीं, इनका झगड़ा दिखावटी है, दरअसल ये एक-दूसरे के पूरक हैं। 

मैं कई साल तक टीवी की बहसें बड़ी रुचि के साथ देखता रहा हूं। अंततः मैंने पाया कि यहां अंधविश्वास और कट्टरता के विरोध के नाम पर ‘धर्म बनाम विज्ञान’, ‘अध्यात्म बनाम तर्क’, ‘नया बनाम पुराना’, ‘मंदिर बनाम मस्ज़िद’, जैसे कुछ मिलते-जुलते नामों से इधर-उधर की बहसें चलाई जातीं हैं। नास्तिकता शब्द का उच्चारण भी मैंने नास्तिक ग्रुप शुरु करने के बाद भी हिंदी चैनलों के किसी एंकर के मुख से दो-चार बार ही सुना है। ‘ईश्वर है या नहीं’ ऐसी कोई बहस तो मेरे देखने में कभी भी नहीं आई। यही हाल हिंदी फ़िल्मों का भी रहा है। बात समझना इतना मुश्क़िल भी नहीं है कि ऐसे लोगों को आर एस एस एस सूट नहीं करेगा तो और कौन सूट करेगा। ‘हींग लगे न फ़िटकरी और रंग चोखा का चोखा’। किया कुछ भी नहीं, बस आर एस एस एस को ग़ाली देने का दैनिक कर्मकांड निपटाया और प्रगतिशील बनके बैठ गए।

दरअसल ऐसे ‘प्रगतिशीलों’ ने ब्राहमणवाद, आर एस एस एस या धर्म से उपजी हर बुराई को विस्तार दिया है। साकार भगवान से निपटने के नाम पर इन्होंने निराकार भगवान नाम की बड़ी चालाक़ी खड़ी कर दी। प्रगतिशीलों, उदारवादियों और तार्किकों के बीच धर्म को मान्यता और स्वीकृति दिलानेवाली सबसे बड़ी और भ्रामक अवधारणा ‘धर्मनिरपेक्षता’ ऐसी ही बुद्धिओं() का ‘चमत्कार’ लगती है (इस संदर्भ में ये भी पढ़ें-पहलादूसरा )। आर एस एस एस का दिखावटी विरोध करनेवाली तथाकथित गंगा-जमुनी संस्कृति भी ऐसी ही अजीबो-ग़रीब मानसिकताओं का जोड़ मालूम होती है। ये गाय को मां बताए जाने पर तो हंसते हैं पर यह भूल जाते हैं कि ये ख़ुद नदियों को मां बनाए बैठे हैं। आप नदियों व ‘भारतीयता’ पर राज कपूर व अन्य तथाकथित प्रगतिशीलों की फ़िल्मों के गाने देखिए-सुनिए। ज़रा सोचिए कि अगर ‘होंठों पर सचाई रहती है, हर दिल में सफ़ाई रहती है’ तो इतने सारे ट्रकों की पीठ पर ‘सौ में से निन्यानवें बेईमान’ किसने और क्यों लिख दिया था!? ‘हम उस देस के वासी हैं जिस देस में गंगा बहती है’........तो ? दुनिया में आपका क्या अकेला ऐसा देश है जिसमें कोई नदी बहती है !? आपकी वजह से बहती है क्या ? आप न होते तो न बहती ? यहां अंग्रेज़ आए तो गंगा बहना बंद हो गई थी क्या ? बहने से सारी समस्याएं भी अपने-आप बह जाएंगी क्या ? साहिर कहते हैं कि ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा’ और फिर अगली ही पंक्तियों में यह भी कह देते हैं कि ‘कुरआन न हो जिसमें वो मंदिर नहीं तेरा, गीता न हो जिसमें वो हरम तेरा नहीं है’....., अब पूछिए कि गीता और क़ुरान होंगे और हिंदू और मुसलमान नहीं होंगे !?’ गीता और क़ुरान में क्या अचार डालने के तरीक़े बताए गए हैं !? इंटरनेट की बहसों में दूसरों के अलावा कुछ तथाकथित प्रगतिशील भी सलाहें देते पाए जाते हैं कि क़िताबें ज़रुर पढ़नी चाहिएं, अध्ययन ज़्यादा से ज़्यादा करना चाहिए। भाईजी, आपने साहिर को गीता का अध्ययन करते देखा था क्या ? अगर अध्ययन करने के बाद भी उन्हें यह महान नुस्ख़ा सूझा तो कहने ही क्या !! मेरी तलवार आपके घर रख दें और आपका भाला मेरे घर में रख दे तो हम दोनों का झगड़ा ख़त्म हो जाएगा !? कमाल का आयडिया है!  दूसरे क्रांतिकारी शायर फ़ैज़ ‘हम देखेंगे, हम देखेंगे...के बाद भविष्य के संदर्भ में कुछ घोषणाएं करते हुए आखि़रकार कहते हैं कि ‘बस नाम रहेगा अल्लाह का, जो ग़ायब भी है हाज़िर भी......’। तो लीजिए, यह रही आपकी क्रांति। आर एस एस एस लिखेगा तो इससे कुछ अलग लिखेगा क्या ? उसकी तो तबियत चकाचक हो जाती होगी ऐसे गाने सुनकर।

(भारतीय ‘प्रगतिशीलों’ का पसंदीदा संगठन आर एस एस एस-2)

-संजय ग्रोवर
07-02-2016


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