1-दीवारों के कान महान!
कुछ लोग दूसरों को इतना डराते क्यों हैं !?
ज़रा आप किसी मशहूर(), सफ़ल(), बड़े() आदमी का नाम लेकर कुछ कह दो, लिख दो, ये आपकी जान को पड़ जाते हैं कि ‘तुम्हारी औक़ात क्या है, तुम उसके सामने बेचते क्या हो, तुमने चांद पर पत्थर मार दिया, आसमान पर थूक दिया.....
कोई किसी पढ़े-लिखे आदमी से कुछ कह दे तो भी यही कि अबे! तुम जानते क्या हो, जानते नहीं कितना ज्ञानी आदमी है, यहां भाषण देता है, वहां सेमिनार में जाता है, कितनी नॉलेज है अगले की...
आप किसी लेखक के कहे पर कुछ कह दो, किसी फ़िल्मस्टार की कोई ग़लती बता दो, किसी पुराने-धुराने कवि की धूल झाड़ दो, किसी महापुरुष की महानता को अगरबत्ती की जगह मोमबत्ती दिखा दो, किसी आयकन-फ़ायकन को सर-वर कहकर संबोधित न करो....ये एकदम से सांड की तरह भड़क जाते हैं (सही बात यह है कि सांड को भड़कते तो मैंने कभी देखा ही नहीं, इन्हीं को देखकर अंदाज़ा लगा लेता हूं)। इनमें कुछ बिचौलिए टाइप के लोग होते हैं जो एकदम तड़पने लगते हैं कि तुम अपना नाम करने के लिए ‘बड़े’ नामों का इस्तेमाल करते हो.....
दिलचस्प तथ्य यह है कि यही लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्ति की समानता के भी चाचा-मामा बने बैठे रहते हैं। भईया या तो समानता ही ले आओ या फिर चमचई ही निपटा लो.....। समानता बड़ा-छोटा नहीं देखती, इसमें सब इंसानों को एक से अधिकार होते हैं, समानता में बड़ा-छोटा होना भी क्यों चाहिए!? अज्ञात शायर का शे‘र है कि-
इश्क़ में ज़ख़्म सब बराबर हैं,
इसमें छोटा-बड़ा नहीं होता.
जहां तक मेरी बात है, मैं अमूमन लोगों के नामों के ज़िक़्र से बचता हूं, बहुत ज़रुरी लगने पर ही नाम लेता हूं, मेरा उद्देश्य व्यक्तियों पर कम और प्रवृत्तिओं पर बात करने का ज़्यादा रहता है। दूसरे, मुझे यह भी लगता है कि किसीका नाम लेने से उसे फ़ायदा ही होता है, हमें हो न हो। जब मैं छोटा-बड़ा मानता ही नही तो किसीका नाम लेकर ख़ामख़्वाह उसे ‘बड़े’ होने की ग़लतफ़हमी या ख़ुशफ़हमी क्यों गिफ़्ट करुं ? जो लोग नाम के लिए कुछ भी करते फिरते हैं, उनमें से बहुत-से लोग तो कहीं भी, कैसे भी नाम लिए जाने पर ख़ुश ही होते होंगे ; हम मुफ़्त में उनका नाम क्यों करते फिरें !?
आप अपनी फ़िल्मों, कहानियों, कार्टूनों, अन्य रचनाओं के ज़रिए समाज और व्यक्तिओं पर तरह-तरह की टिप्पणियां करते हैं, बदले में कोई आप पर अपनी राय व्यक्त कर देता है तो उसमें इतना घबराने की क्या बात है !?
और आप इतना डराते क्यों हैं लोगों को !? कि इस क़िताब में दस ‘बड़ेे’ लोगों ने भूमिका लिखी है इसलिए इसपर किसीको बोलने का हक़ नहीं है। इस फ़िल्म की पहले दिन की कलैक्शन इतने करोड़ है इसलिए सब चुप रहो। यह आदमी कई विदेश-यात्राएं कर चुका है इसलिए चुप! उस आदमी के ढाई करोड़ फ़ैन हैं इसलिए चुप! उस आदमी को पच्चीस पुरस्कार मिल चुके हैं इसलिए चुप!
चुप! चुप! चुप! चुप रहो बे!
समझ में नहीं आता कि आप लोग लेखक, कलाकार और मशहूर आदमी हैं या डरावने और आतंकवादी टाइप के आदमी हैं !?
लोगों को इतना डरा-डरा कर नाम करने में और बड़ा बनने में आखि़र अच्छा और बड़ा बचता क्या है !?
-संजय ग्रोवर
13-12-2015
कुछ लोग दूसरों को इतना डराते क्यों हैं !?
ज़रा आप किसी मशहूर(), सफ़ल(), बड़े() आदमी का नाम लेकर कुछ कह दो, लिख दो, ये आपकी जान को पड़ जाते हैं कि ‘तुम्हारी औक़ात क्या है, तुम उसके सामने बेचते क्या हो, तुमने चांद पर पत्थर मार दिया, आसमान पर थूक दिया.....
कोई किसी पढ़े-लिखे आदमी से कुछ कह दे तो भी यही कि अबे! तुम जानते क्या हो, जानते नहीं कितना ज्ञानी आदमी है, यहां भाषण देता है, वहां सेमिनार में जाता है, कितनी नॉलेज है अगले की...
आप किसी लेखक के कहे पर कुछ कह दो, किसी फ़िल्मस्टार की कोई ग़लती बता दो, किसी पुराने-धुराने कवि की धूल झाड़ दो, किसी महापुरुष की महानता को अगरबत्ती की जगह मोमबत्ती दिखा दो, किसी आयकन-फ़ायकन को सर-वर कहकर संबोधित न करो....ये एकदम से सांड की तरह भड़क जाते हैं (सही बात यह है कि सांड को भड़कते तो मैंने कभी देखा ही नहीं, इन्हीं को देखकर अंदाज़ा लगा लेता हूं)। इनमें कुछ बिचौलिए टाइप के लोग होते हैं जो एकदम तड़पने लगते हैं कि तुम अपना नाम करने के लिए ‘बड़े’ नामों का इस्तेमाल करते हो.....
दिलचस्प तथ्य यह है कि यही लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्ति की समानता के भी चाचा-मामा बने बैठे रहते हैं। भईया या तो समानता ही ले आओ या फिर चमचई ही निपटा लो.....। समानता बड़ा-छोटा नहीं देखती, इसमें सब इंसानों को एक से अधिकार होते हैं, समानता में बड़ा-छोटा होना भी क्यों चाहिए!? अज्ञात शायर का शे‘र है कि-
इश्क़ में ज़ख़्म सब बराबर हैं,
इसमें छोटा-बड़ा नहीं होता.
जहां तक मेरी बात है, मैं अमूमन लोगों के नामों के ज़िक़्र से बचता हूं, बहुत ज़रुरी लगने पर ही नाम लेता हूं, मेरा उद्देश्य व्यक्तियों पर कम और प्रवृत्तिओं पर बात करने का ज़्यादा रहता है। दूसरे, मुझे यह भी लगता है कि किसीका नाम लेने से उसे फ़ायदा ही होता है, हमें हो न हो। जब मैं छोटा-बड़ा मानता ही नही तो किसीका नाम लेकर ख़ामख़्वाह उसे ‘बड़े’ होने की ग़लतफ़हमी या ख़ुशफ़हमी क्यों गिफ़्ट करुं ? जो लोग नाम के लिए कुछ भी करते फिरते हैं, उनमें से बहुत-से लोग तो कहीं भी, कैसे भी नाम लिए जाने पर ख़ुश ही होते होंगे ; हम मुफ़्त में उनका नाम क्यों करते फिरें !?
आप अपनी फ़िल्मों, कहानियों, कार्टूनों, अन्य रचनाओं के ज़रिए समाज और व्यक्तिओं पर तरह-तरह की टिप्पणियां करते हैं, बदले में कोई आप पर अपनी राय व्यक्त कर देता है तो उसमें इतना घबराने की क्या बात है !?
और आप इतना डराते क्यों हैं लोगों को !? कि इस क़िताब में दस ‘बड़ेे’ लोगों ने भूमिका लिखी है इसलिए इसपर किसीको बोलने का हक़ नहीं है। इस फ़िल्म की पहले दिन की कलैक्शन इतने करोड़ है इसलिए सब चुप रहो। यह आदमी कई विदेश-यात्राएं कर चुका है इसलिए चुप! उस आदमी के ढाई करोड़ फ़ैन हैं इसलिए चुप! उस आदमी को पच्चीस पुरस्कार मिल चुके हैं इसलिए चुप!
चुप! चुप! चुप! चुप रहो बे!
समझ में नहीं आता कि आप लोग लेखक, कलाकार और मशहूर आदमी हैं या डरावने और आतंकवादी टाइप के आदमी हैं !?
लोगों को इतना डरा-डरा कर नाम करने में और बड़ा बनने में आखि़र अच्छा और बड़ा बचता क्या है !?
-संजय ग्रोवर
13-12-2015
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