Sunday 12 July 2015

नास्तिकता क्या है

अगर मैं कहीं रास्ते से निकल रहा होऊं और वहां कहीं कीर्तन-जागरन होता दिख जाए और मैं पता लगाना शुरु कर दूं कि यह व्यक्ति किस राजनीतिक दल से जुड़ा है ; अगर यह किसी वामपंथ से जुड़ा है तो यह प्रगतिशील जागरन है, अगर कांग्रेसी है तो यह मॉडरेट कट्टरपंथी है, अगर यह संघी वगैरह है तो यह पूरी तरह रुढ़िवादी जागरन-कीर्तन है।

क्या यही नास्तिकता है ?

मेरे लिए तो बिलकुल भी नहीं। अगर जागरन कराना मेरी नज़र में फ़ालतू के कर्मकांडों को ढोना है तो मुझे उसके लिए यह पता लगाने की बिलकुल भी ज़रुरत नहीं है कि करानेवाला किस दल, किस गुट, किस बिरादरी, किस जाति से जुड़ा है। जो बात साफ़ समझ में आ रही हो उसके लिए ख़ामख़्वाह दीवारों से टकराने की क्या ज़रुरत है भला !?

जहां हर किसीके अपने बाबा हों, अपने भगवान हों, अपने कर्मकांड हों.....वहां किसी एक को निशाना बनाकर ख़ुदको नास्तिक और प्रगतिशील साबित करने की कोशिश मेरी समझ में  अजीबो-ग़रीब तो है ही, शायद कभी-कभार (या अकसर) एक सुविधा की स्थिति भी है। नास्तिकता को सिर्फ़ एक-दो समूहों या लोगों के विरोध तक संकुचित/रिड्यूस कर देने से नास्तिकता और इंसानियत का क्या भला हो सकता है ? यह तो जाने-अनजाने आप उन्हीं लोगों का काम कर रहे हैं जो नहीं चाहते कि लोग नास्तिकता को समझें। यह कुछ ऐसे ही हुआ कि बेईमानी के विरोध के नाम पर आप सिर्फ़ किसी तथाकथित ‘बेईमान दल’ को ग़ालियां देते रहें और समाज में चारों तरफ़ जो बेईमानियां चल रहीं है उनसे एडजस्ट किए चले जाएं! इस शौक़िया प्रगतिशीलता से कब तक काम चलेगा !?

मेरे लिए नास्तिकता सिर्फ़ भगवान और धर्म से जुड़ी चीज़ों को ही खोलना-परखना नहीं है। भगवान भी आखि़र एक मान्यता, विज्ञापन और धारणा से ज़्यादा क्या है ? भगवान और धर्म से जोड़कर या उन्हींकी तरह दुनिया-भर में कई उल्टी-सीधी कारग़ुज़ारियां चलती आ रही हैं जो कि इंसानियत के लिए कम नुकसानदेय नहीं हैं। इनमें सफ़लता है, पुरस्कार है, ट्रॉफ़ी है, प्रतिष्ठा है, रैंक है, नाम है, मशहूरी है.......। आदमी कुछ भी कहे मगर इन सबके पीछे दूसरों से ऊंचा होने का, दूसरों को डराने का, अपने काम प्रॉपर चैनल से करने में शरमाते हुए पिछली खिड़की से करवाकर गर्व करने का, विपरीत सैक्स के लोगों में लोकप्रियता हासिल कर उसका फ़ायदा उठाने का भाव या नीयत कहीं न कहीं रहते ही हैं। भगवान के पास भी आखि़र लोग और किन कारणों से जाते हैं !? अगर मैं किसी आदमी से इसलिए प्रभावित नहीं होता कि वह कुछ मूर्त्तियां सजाए बैठा है तो मैं किसी ऐसे आदमी से भी क्यों प्रभावित होऊं जो अपने ड्रॉइंगरुम में दस-बीस ट्रॉफ़ियां सजाए है ? मूर्त्ति सजानेवाला आदमी अगर बिना सोचे-समझे किसी व्यवस्था का हिस्सा बन गया है तो ट्रॉफ़ी सजानेवाले ने कब इस परंपरा को लेकर बहुत चिंतन-मनन किया है ? किन्हीं दस-बीस लोगों का पैनल किसीको महान और श्रेष्ठ बताता है और बाद में कुछ अख़बार और टीवी चैनल उसकी महिमा गाते हैं तो गाएं !! मेरी क्या मजबूरी है कि मैं यह मानूं कि यही देश और दुनिया के सबसे प्रतिभाशाली लोग हैं!? ख़ासकर तब,जब मैंने होश संभालते से जोड़-जुगाड़-तिकड़म-मक्ख़नबाज़ी से मलाई खाते लोगों के झुंड के झुंड देखे हों !? मैं कैसे मान लूं कि इनकी नीयत और तौर-तरीक़े भगवान के विज्ञापनकर्त्ताओं और लाभार्थियों से अलग हैं ? आप मेरी कमी या ग़लती बताएं, मैं बहस के लिए तैयार हूं।

कोई भी चीज़ हम सिर्फ़ इसलिए करते चले जाएं कि वह होती चली आ रही है !? इसके अलावा हमें उसे करने का दूसरा कोई भी ढंग का कारण मालूम न हो, फिर भी हम ख़ुद तो करें ही करें, दूसरों को भी करने पर मजबूर करें! कितनी अजीब बात है!! वे सारे कर्मकांड जिनसे सिर्फ़ वक़्त की बर्बादी के अलावा जो भी होता हो वो सिर्फ़ हमारी ख़ामख़्याली और फ़ैंटसी के अलावा कुछ न हो, को सिरे से नकार देने में मैं तो कोई दिक़्क़त नहीं मानता।

मेरे लिए नास्तिकता का मतलब हैं हम एक-एक बात का कारण जानने की कोशिश करें, जिसे समाज ने ‘कुछ होना’ कहा है, उसके बारे में हम ख़ुद पता लगाएं कि इसमें वाक़ई होने जैसा क्या है ; हमें उसमें कुछ होने जैसा लगे तभी उसमें शामिल हों। मसलन जैसे किसीको पुरस्कार मिलता है तो लोग मानते हैं कि कुछ हुआ। जिसे पुरस्कार मिला उसके लिए ज़रुर कुछ हुआ होगा, थोड़ी व्यक्तिगत उपलब्धि, संतुष्टि उसे लगी होगी लेकिन समाज का इसमें क्या फ़ायदा है ? मुझे तो लगता है कि अगर उस व्यक्ति ने पुरस्कार के लिए कुछ जोड़-तोड़, मक्खनबाज़ी, जातिबाज़ी की तो उसने समाज को नुकसान पहुंचाया। उसने समाज में पहले से व्याप्त इस धारणा को बल दिया कि बेटा, बिना जान-पहचान के कुछ नहीं होता, कहीं न कहीं एडजस्ट तो करना ही पड़ता है। तिसपर यह तो और भी शर्मनाक़ है कि ऐसे चार लोग बैठकर परस्पर ईमानदारी पर बहस करें और टीवी दर्शक उनसे ‘ईमानदारी’ और ‘त्याग’ वगैरह की ‘प्रेरणा’ लें।

नास्तिकता का मतलब है हम सारी मान्यताओं, धारणाओं, परंपराओं, इतिहास, मशहूरी, प्रतिष्ठा, नाम, सफ़लता.....एक-एक चीज़ के महत्व, प्रासंगिकता और नुकसान को अपनी आंख से देखें। जहां तक मेरी बात है, अपनी नास्तिकता के हवाले से मैं इस बात पर शक़ कर सकता हूं कि भगतसिंह के द्वारा दो छोटे-छोटे, सिर्फ़ धुंआ छोड़नेवाले बम फेंक देने से उस अंग्रेजी साम्राज्य की चूलें हिल सकतीं हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने सारी दुनिया पर राज किया! मैं पूछ सकता हूं वे किस तरह के धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील लोग थे जिन्होंने हमारी पाठ्य-पुस्तकों में स्पष्ट अंधविश्वासविरोधी कबीर की लाश में से फूल निकाल दिए !? मैं अपने इस आश्चर्य और संदेह को प्रकट करने में कोई बुराई नहीं मानता कि भगवान को नकारने के लिए अरबों-ख़रबों रुपए लगा कर किए गए प्रयोग का नाम ‘गॉड पार्टीकिल’ रखना क्यों ज़रुरी समझा गया ? अहिंसा के पुजारी कहे जानेवाले महात्मा गांधी की प्रिय पुस्तक वह कैसे हो सकती थी जिसमें हिंसा और मारकाट के अलावा और कुछ है ही नहीं !? छुआछूत जैसी व्यवस्था बनानेवालों को सिर्फ़ इसलिए ‘अहिंसक’ कैसे कहा जा सकता है कि वे अपने हाथों से किसीको नहीं पीटते !? दरअसल तो उन्होंने लोगों की पीढ़ियों की पीढ़ियों को जीतेजी मार डाला है। मैं आराम से कह सकता हूं कि हर बच्चा जन्म से नास्तिक ही होता है।

मेरे लिए यही नास्तिकता है।

इस लेख में कई बार ‘मैं’ या ‘मेरे’ शब्द आए हैं जिनके लिए, अगर वे आपको बुरे लगे तो, मैं माफ़ी चाहूंगा, मगर चूंकि मैं नास्तिकता पर ‘अपने’ विचार रख रहा हूं तो इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था।

-संजय ग्रोवर
12/13-07-2015


No comments:

Post a Comment