अगर कोई बार-बार आपसे कहे कि मैं ऊंच-नीच नहीं मानता, जात-पात नहीं मानता मगर थोड़ी ही देर बाद जब किसी बहस के दौरान उसे कोई तर्क न सूझे तो वह कहने लगे कि ‘अगर तुम आकाश पर थूकोगे तो वह लौटकर तुम पर ही गिरेगा’ तो इसका क्या मतलब हुआ? साफ़ ही है कि वह व्यक्ति न सिर्फ़ ऊंच-नीचवादी है बल्कि आत्ममुग्ध भी है। जो ख़ुदको आकाश बता रहा है वह सौ प्रतिशत ऊंच-नीचवादी है। वह आपको तो धोखा दे ही रहा है, हो सकता है जन्म से मिले अतिआत्मविश्वास और ‘ख़ानदानी’ ग़लतफ़हमियों के चलते ख़ुदको भी धोखा दे रहा हो।
प्रगतिशीलता का जिस तरह का इस्तेमाल यहां होता है वह भी किसी पोंगापंथ से कम नहीं है। प्रगतिशीलता की आड़ में चुन्नू-मुन्नूस्मृति यहां आज भी इस तरह से जारी है कि जो लोग ‘फ़ासीवाद आ गया’, ‘फ़ासीवाद आ गया’ का शोर मचा रहे होते हैं वही उस ‘फ़ासीवाद’ से फ़ायदे और पुरस्कार सरेआम ले रहे होते हैं। ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ का आलम यह है कि इसपर भी उन्हें शर्म तो नहीं ही आती बल्कि वे ऐसे लोगों को फ़ासीवाद और कट्टरपंथ से जुड़ा साबित करने में लग जाते हैं जो एक स्वतंत्र जीवन जीने की ख़ातिर पुरस्कार, वज़ीफ़े, तथाकथित सफ़लता, कैरियर, शादी जैसी किसी भी बनावटी उपलब्धि या संस्था को नज़रअंदाज़ करते आए हों, उन्हें रत्ती-भर भाव न देते हों।
शर्मनाक़ स्थिति यह है कि हम सारी गंदी परंपराओं को भी बनाए रखेंगे, उनसे मिलनेवाले सारे मज़े लूटेंगे, फिर भी हम प्रगतिशील और परोपकारी हैं, और तुमने इस बात पर उंगली भी उठाई तो हम तुम्हे कट्टरपंथी साबित कर देंगे, क्योंकि सारे भोंपू हमारे हिसाब से बजते हैं, सारे ढोल हमारी ताल, हमारे इशारे पर पिटते हैं।
एक और उदाहरण से बताता हूं, जब पीके फ़िल्म आई और भक्तगणों ने प्रशंसा और विरोध अभियान शुरु किए तो न तो किसी संघी ने यह सवाल उठाया, न किसी वामी ने, न किसी कांग्रेसी ने कि पीके नाम की इस तथाकथित महाक्रांतिकारी फ़िल्म के अवतारी नायक ने अंत में तो भगवान को स्वीकार कर ही लिया है तो इसकी क्रांतिकारिता का इतना शंख क्यों फूंका जा रहा है ?
एक और हास्यास्पद तथ्य यह है कि जब भी धर्म और अंधविश्वास के खि़लाफ़ आवाज़ उठती है तो प्रगतिशीलता का पोज़ बनाए बैठे लोग कुछ (सलेक्टेड)बाबाओं और दो-एक संस्थाओं को ग़ालियां देना शुरु कर देते हैं। लगता है जैसे इन बाबाओं और संस्थाओं का आविष्कार ही इसलिए किया गया कि लोगों का ध्यान इन्हीं तक सीमित हो जाए और असली अपराधी न सिर्फ़ लोगों की नज़रों से बचे रहें बल्कि बेख़ौफ़ अपना काम भी आगे बढ़ाते रहें। इन तथाकथित प्रगतिशीलों के न सिर्फ़ अपने ख़ास बाबा मौजूद हैं बल्कि इन्होंने खिलाड़ियों तक को भगवान घोषित कर रखा है। फिर भी ये प्रगतिशील बने बैठे हैं।
हमारी भी ग़लती है जो हम तुरत-फुरत ऐसे लोगों को प्रगतिशील मान लेते हैं जिनके आचार-विचार-व्यवहार, घटिया रीति-रिवाजों, अपने नायकों को साम-दाम-दंड-भेद-छल-बल से देवता/आयकन/भगवान/महापुरुष/पवित्र परंपरा बनाने, रुख़ बदलकर लहर पर सवार हो जाने की आदतें बिलकुल वैसी ही होतीं हैं, जैसी दूसरों की आदतों का विरोध दिखाकर वे ख़ुदको प्रगतिशील बताते हैं। बस उनके साइनबोर्ड की इबारत अलग होती है बाक़ी सब एक-सा होता है।
ऐसा शायद इसलिए होता है कि हम पहले साइनबोर्ड देखते हैं, बाद में व्यवहार या हरक़तें देखते हैं। चूंकि साइनबोर्ड को लेकर हमारे कुछ पूर्वाग्रह हैं(जिनमें से कुछेक सही भी हो सकते हैं)इसलिए हम उन्हीं पूर्वाग्रहों के अनुसार निर्णय ले लेते हैं, सही, ग़लत तय कर लेते हैं। और ऐसा संभवतः इसलिए भी होता है कि कभी-कभी उसमें एक पक्ष के साथ हम जुड़े होते हैं। फ़िर हम वही करते हैं जो गली-मोहल्लों की लड़ाईयों में होता है। भले हमारा अपना बच्चा किसीको चपत मारकर भाग आया हो, मगर हम यह इसलिए मानने को तैयार नहीं होते कि ‘हमारे ‘ख़ानदान’ में तो यह सिखाया ही नहीं जाता’ या ‘हमारा ‘ख़ानदान’ तो इसके लिए जाना ही नहीं जाता’। ऐसी अजीब, अतार्किक ज़िद या घोषणा की असल वजह अहंकार और ढिठाई के अलावा और क्या हो सकती है? किसी भी पक्ष के प्रति अंधा झुकाव रखने से और हो भी क्या सकता है ?
एक काम तो हम कर ही सकते हैं कि प्रगतिशीलता और रुढ़िवादिता को किसी(और किसी और के दिए) चश्मे से न देखें बल्कि नंगी आंखों से उनकी हरक़तों को परखें और पकड़ें।
-संजय ग्रोवर
02-06-2015
प्रगतिशीलता का जिस तरह का इस्तेमाल यहां होता है वह भी किसी पोंगापंथ से कम नहीं है। प्रगतिशीलता की आड़ में चुन्नू-मुन्नूस्मृति यहां आज भी इस तरह से जारी है कि जो लोग ‘फ़ासीवाद आ गया’, ‘फ़ासीवाद आ गया’ का शोर मचा रहे होते हैं वही उस ‘फ़ासीवाद’ से फ़ायदे और पुरस्कार सरेआम ले रहे होते हैं। ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ का आलम यह है कि इसपर भी उन्हें शर्म तो नहीं ही आती बल्कि वे ऐसे लोगों को फ़ासीवाद और कट्टरपंथ से जुड़ा साबित करने में लग जाते हैं जो एक स्वतंत्र जीवन जीने की ख़ातिर पुरस्कार, वज़ीफ़े, तथाकथित सफ़लता, कैरियर, शादी जैसी किसी भी बनावटी उपलब्धि या संस्था को नज़रअंदाज़ करते आए हों, उन्हें रत्ती-भर भाव न देते हों।
शर्मनाक़ स्थिति यह है कि हम सारी गंदी परंपराओं को भी बनाए रखेंगे, उनसे मिलनेवाले सारे मज़े लूटेंगे, फिर भी हम प्रगतिशील और परोपकारी हैं, और तुमने इस बात पर उंगली भी उठाई तो हम तुम्हे कट्टरपंथी साबित कर देंगे, क्योंकि सारे भोंपू हमारे हिसाब से बजते हैं, सारे ढोल हमारी ताल, हमारे इशारे पर पिटते हैं।
एक और उदाहरण से बताता हूं, जब पीके फ़िल्म आई और भक्तगणों ने प्रशंसा और विरोध अभियान शुरु किए तो न तो किसी संघी ने यह सवाल उठाया, न किसी वामी ने, न किसी कांग्रेसी ने कि पीके नाम की इस तथाकथित महाक्रांतिकारी फ़िल्म के अवतारी नायक ने अंत में तो भगवान को स्वीकार कर ही लिया है तो इसकी क्रांतिकारिता का इतना शंख क्यों फूंका जा रहा है ?
एक और हास्यास्पद तथ्य यह है कि जब भी धर्म और अंधविश्वास के खि़लाफ़ आवाज़ उठती है तो प्रगतिशीलता का पोज़ बनाए बैठे लोग कुछ (सलेक्टेड)बाबाओं और दो-एक संस्थाओं को ग़ालियां देना शुरु कर देते हैं। लगता है जैसे इन बाबाओं और संस्थाओं का आविष्कार ही इसलिए किया गया कि लोगों का ध्यान इन्हीं तक सीमित हो जाए और असली अपराधी न सिर्फ़ लोगों की नज़रों से बचे रहें बल्कि बेख़ौफ़ अपना काम भी आगे बढ़ाते रहें। इन तथाकथित प्रगतिशीलों के न सिर्फ़ अपने ख़ास बाबा मौजूद हैं बल्कि इन्होंने खिलाड़ियों तक को भगवान घोषित कर रखा है। फिर भी ये प्रगतिशील बने बैठे हैं।
हमारी भी ग़लती है जो हम तुरत-फुरत ऐसे लोगों को प्रगतिशील मान लेते हैं जिनके आचार-विचार-व्यवहार, घटिया रीति-रिवाजों, अपने नायकों को साम-दाम-दंड-भेद-छल-बल से देवता/आयकन/भगवान/महापुरुष/पवित्र परंपरा बनाने, रुख़ बदलकर लहर पर सवार हो जाने की आदतें बिलकुल वैसी ही होतीं हैं, जैसी दूसरों की आदतों का विरोध दिखाकर वे ख़ुदको प्रगतिशील बताते हैं। बस उनके साइनबोर्ड की इबारत अलग होती है बाक़ी सब एक-सा होता है।
ऐसा शायद इसलिए होता है कि हम पहले साइनबोर्ड देखते हैं, बाद में व्यवहार या हरक़तें देखते हैं। चूंकि साइनबोर्ड को लेकर हमारे कुछ पूर्वाग्रह हैं(जिनमें से कुछेक सही भी हो सकते हैं)इसलिए हम उन्हीं पूर्वाग्रहों के अनुसार निर्णय ले लेते हैं, सही, ग़लत तय कर लेते हैं। और ऐसा संभवतः इसलिए भी होता है कि कभी-कभी उसमें एक पक्ष के साथ हम जुड़े होते हैं। फ़िर हम वही करते हैं जो गली-मोहल्लों की लड़ाईयों में होता है। भले हमारा अपना बच्चा किसीको चपत मारकर भाग आया हो, मगर हम यह इसलिए मानने को तैयार नहीं होते कि ‘हमारे ‘ख़ानदान’ में तो यह सिखाया ही नहीं जाता’ या ‘हमारा ‘ख़ानदान’ तो इसके लिए जाना ही नहीं जाता’। ऐसी अजीब, अतार्किक ज़िद या घोषणा की असल वजह अहंकार और ढिठाई के अलावा और क्या हो सकती है? किसी भी पक्ष के प्रति अंधा झुकाव रखने से और हो भी क्या सकता है ?
एक काम तो हम कर ही सकते हैं कि प्रगतिशीलता और रुढ़िवादिता को किसी(और किसी और के दिए) चश्मे से न देखें बल्कि नंगी आंखों से उनकी हरक़तों को परखें और पकड़ें।
-संजय ग्रोवर
02-06-2015
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