नक़ली नास्तिकता की बात इस ग्रुप में कई बार उठी है। समझना मुश्क़िल हो जाता है कि कैसे पता लगाएं कि कौन नक़ली है कौन असली, अगर कोई नक़ली है तो उसे नक़ली होने से मिलता क्या है ?
इसपर एकदम कोई फ़ैसला कर लेना बहुत आसान तो नहीं है, ठीक भी नहीं लगता फिर भी लोग ‘जगत मिथ्या है, भ्रम सत्य है’ जैसे कथनों का मर्म समझ लेंगे उनके लिए समझना कुछ आसान ज़रुर हो जाएगा। जिन्होंने ‘न कोई मरता है न कोई मारता है‘ जैसी अजीबो-ग़रीब दर्शन रच लिए हों, साफ़ ही है कि वे जीवन की वास्तविकताओं से हारे और डरे हुए लोग हैं और उनका जीवन अभिनय बनकर ही रह गया होगा। एक अभिनेता के लिए आस्तिकता और नास्तिकता, वाम और दक्षिण, ईमानदारी और बेईमानी..... सब भूमिकाएं हैं, रोल हैं। इसीलिए उनका सबसे ज़्यादा ज़ोर अभिनय, प्रदर्शन, प्रतीक, शिल्प, शैली, कर्मकांडों आदि पर ही रहता है। एक मृत शरीर जो सिर्फ़ जीने का अभिनय कर रहा है, जिसके भीतर संवेदना से लेकर विचार तक सब अभिनय ही है, वह और कर भी क्या सकता है, सिवाय इसके कि रोज़ाना अपने मृत शरीर को नए ढंग से सजा-धजाकर लोगों के सामने पेश करता रहे, लोगों को अपनी तरह मृत बनाने की कोशिश करता रहे। मृतकों में जो थोड़ा-सा भी ज़िंदा दिख रहा है, वही श्रेष्ठ लगने लगेगा।
जिसके लिए अभिनय ही जीवन है उसके लिए मौक़ापरस्ती क्या बड़ी बात होगी। वह देखेगा कि इंटरनेट पर नास्तिकता स्वीकृत हो रही है तो वह तुरंत वहां नास्तिक हो जाएगा ; जहां आस्तिकता में सुविधा है, आस्तिक बना रहेगा। कोई सवाल उठाएगा तो कह देगा कि मैं तो समय के साथ बदल रहा हूं, मैं तो प्रगतिशील हूं। फ़िर आप क्या कहेंगे ? क्या कर लेंगे ?
जहां तक मैंने देखा है, ऐसे लोग किसी भी चीज़ को बदलने के लिए अपनी तरफ़ से बहुत प्रयत्न नहीं करते, ख़ासकर वहां, जहां पागल, सनकी, अव्यवहारिक, अकेला कहलाने या हो जाने का डर हो वहां से तो बिलकुल बच निकलने की कोशिश करते हैं, वे सिर्फ़ तुरंत फ़ायदा देनेवाले ख़तरे (कैलकुलेटेड रिस्क) उठाते हैं। और यही नहीं, उनमें से कई तो, अगर कोई और ऐसा कर रहा है तो उसका मज़ाक़ उड़ाने से, उसको तरह-तरह की कोशिश करके गिराने से भी नहीं चूकते।
और यहां तक भी ग़नीमत होती, मगर मौक़ापरस्ती की हद तो यह है कि जैसे ही उन्हें लगता है कि वह व्यक्ति सफ़ल हो रहा है वे उन मूल्यों के साथ तुरंत अपना नाम जोड़ने की कोशिश शुरु कर देते हैं। फ़िर उन्हें वे सब मूल्य महत्वपूर्ण लगने लगते हैं जिनका वे कल तक मज़ाक़ उड़ा रहे होते हैं। फ़िर उन्हें न तो पागलपन में बुराई दिखाई देती है, न नास्तिकता में, न निष्पक्षता में, न ईमानदारी में, न किसी और में........।
दरअसल उनकी मूल्यों की अपनी कोई समझ होती ही नहीं है, उनकी तो असली कसौटियां हैं-फ़ायदा, लोकप्रियता, सफ़लता यानि कि भीड़ की संख्या, भीड़ का रुझान। ऐसे लोगों की नीयत उस वक़्त बिलकुल साफ़ हो जाती है जब वे न सिर्फ़ किसी और की वजह से सफ़ल हो गए मूल्यों को न सिर्फ़ अपना नाम देने में लग जाते हैं बल्कि मूल व्यक्ति का नाम मिटाने की भी पूरी कोशिश करते हैं। यहां तक कि ऐसे मूल्यों, परंपराओं, कहानियों और क़िस्सों जिन्हें वे कलतक अपना बनाया कहकर गर्व कर रहे थे, का ज़िम्मा भी दूसरे लोगों पर थोपने लगते हैं क्योंकि आज वे मूल्य बदनाम, हास्यास्पद और अव्यवहारिक हो गए हैं।
ऐसे लोगों को मैं लगभग लाश की तरह मानता हूं और उनकी बहुत परवाह नहीं करता।
कई बार मुझे लगता है कि हो सकता है कि कोई अच्छा काम करने के लिए कोई रुप बदलकर आया हो, किसीकी कुछ मजबूरी रही हो ; उससे कुछ सख़्त बात न कह दी जाए, बाद में ख़ुदको भी पछतावा होता है। और इस ग्रुप में भी ऐसे लोग हैं जो (संभवतः)किसी पक्ष से जुड़े होने के बावजूद यथासंभव निष्पक्ष होने की कोशिश करके लिखते हैं। कई लोग यह काम अपने वास्तविक नाम के साथ करते हैं। यह आसान बिलकुल भी नहीं है, ख़ासकर उन लोगों के लिए जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति अपेक्षाकृत बहुत कमतर है।
लेकिन मेरी नज़र में वही ज़िंदा लोग हैं और ऐसे लोगों को मैं बार-बार सलाम करता हूं।
-संजय ग्रोवर
15-02-2015
(नास्तिकTheAtheist Group)
इसपर एकदम कोई फ़ैसला कर लेना बहुत आसान तो नहीं है, ठीक भी नहीं लगता फिर भी लोग ‘जगत मिथ्या है, भ्रम सत्य है’ जैसे कथनों का मर्म समझ लेंगे उनके लिए समझना कुछ आसान ज़रुर हो जाएगा। जिन्होंने ‘न कोई मरता है न कोई मारता है‘ जैसी अजीबो-ग़रीब दर्शन रच लिए हों, साफ़ ही है कि वे जीवन की वास्तविकताओं से हारे और डरे हुए लोग हैं और उनका जीवन अभिनय बनकर ही रह गया होगा। एक अभिनेता के लिए आस्तिकता और नास्तिकता, वाम और दक्षिण, ईमानदारी और बेईमानी..... सब भूमिकाएं हैं, रोल हैं। इसीलिए उनका सबसे ज़्यादा ज़ोर अभिनय, प्रदर्शन, प्रतीक, शिल्प, शैली, कर्मकांडों आदि पर ही रहता है। एक मृत शरीर जो सिर्फ़ जीने का अभिनय कर रहा है, जिसके भीतर संवेदना से लेकर विचार तक सब अभिनय ही है, वह और कर भी क्या सकता है, सिवाय इसके कि रोज़ाना अपने मृत शरीर को नए ढंग से सजा-धजाकर लोगों के सामने पेश करता रहे, लोगों को अपनी तरह मृत बनाने की कोशिश करता रहे। मृतकों में जो थोड़ा-सा भी ज़िंदा दिख रहा है, वही श्रेष्ठ लगने लगेगा।
जिसके लिए अभिनय ही जीवन है उसके लिए मौक़ापरस्ती क्या बड़ी बात होगी। वह देखेगा कि इंटरनेट पर नास्तिकता स्वीकृत हो रही है तो वह तुरंत वहां नास्तिक हो जाएगा ; जहां आस्तिकता में सुविधा है, आस्तिक बना रहेगा। कोई सवाल उठाएगा तो कह देगा कि मैं तो समय के साथ बदल रहा हूं, मैं तो प्रगतिशील हूं। फ़िर आप क्या कहेंगे ? क्या कर लेंगे ?
जहां तक मैंने देखा है, ऐसे लोग किसी भी चीज़ को बदलने के लिए अपनी तरफ़ से बहुत प्रयत्न नहीं करते, ख़ासकर वहां, जहां पागल, सनकी, अव्यवहारिक, अकेला कहलाने या हो जाने का डर हो वहां से तो बिलकुल बच निकलने की कोशिश करते हैं, वे सिर्फ़ तुरंत फ़ायदा देनेवाले ख़तरे (कैलकुलेटेड रिस्क) उठाते हैं। और यही नहीं, उनमें से कई तो, अगर कोई और ऐसा कर रहा है तो उसका मज़ाक़ उड़ाने से, उसको तरह-तरह की कोशिश करके गिराने से भी नहीं चूकते।
और यहां तक भी ग़नीमत होती, मगर मौक़ापरस्ती की हद तो यह है कि जैसे ही उन्हें लगता है कि वह व्यक्ति सफ़ल हो रहा है वे उन मूल्यों के साथ तुरंत अपना नाम जोड़ने की कोशिश शुरु कर देते हैं। फ़िर उन्हें वे सब मूल्य महत्वपूर्ण लगने लगते हैं जिनका वे कल तक मज़ाक़ उड़ा रहे होते हैं। फ़िर उन्हें न तो पागलपन में बुराई दिखाई देती है, न नास्तिकता में, न निष्पक्षता में, न ईमानदारी में, न किसी और में........।
दरअसल उनकी मूल्यों की अपनी कोई समझ होती ही नहीं है, उनकी तो असली कसौटियां हैं-फ़ायदा, लोकप्रियता, सफ़लता यानि कि भीड़ की संख्या, भीड़ का रुझान। ऐसे लोगों की नीयत उस वक़्त बिलकुल साफ़ हो जाती है जब वे न सिर्फ़ किसी और की वजह से सफ़ल हो गए मूल्यों को न सिर्फ़ अपना नाम देने में लग जाते हैं बल्कि मूल व्यक्ति का नाम मिटाने की भी पूरी कोशिश करते हैं। यहां तक कि ऐसे मूल्यों, परंपराओं, कहानियों और क़िस्सों जिन्हें वे कलतक अपना बनाया कहकर गर्व कर रहे थे, का ज़िम्मा भी दूसरे लोगों पर थोपने लगते हैं क्योंकि आज वे मूल्य बदनाम, हास्यास्पद और अव्यवहारिक हो गए हैं।
ऐसे लोगों को मैं लगभग लाश की तरह मानता हूं और उनकी बहुत परवाह नहीं करता।
कई बार मुझे लगता है कि हो सकता है कि कोई अच्छा काम करने के लिए कोई रुप बदलकर आया हो, किसीकी कुछ मजबूरी रही हो ; उससे कुछ सख़्त बात न कह दी जाए, बाद में ख़ुदको भी पछतावा होता है। और इस ग्रुप में भी ऐसे लोग हैं जो (संभवतः)किसी पक्ष से जुड़े होने के बावजूद यथासंभव निष्पक्ष होने की कोशिश करके लिखते हैं। कई लोग यह काम अपने वास्तविक नाम के साथ करते हैं। यह आसान बिलकुल भी नहीं है, ख़ासकर उन लोगों के लिए जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति अपेक्षाकृत बहुत कमतर है।
लेकिन मेरी नज़र में वही ज़िंदा लोग हैं और ऐसे लोगों को मैं बार-बार सलाम करता हूं।
-संजय ग्रोवर
15-02-2015
(नास्तिकTheAtheist Group)
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन तीसरा शहादत दिवस - हवलदार हंगपन दादा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeletePlease visit my blog
DeletePlease visit my blog and share your opinion🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
Deleteबहुत खूब....., सादर नमस्कार
ReplyDeletePlease visit my blog and share your opinion🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
DeleteI Love your article. You cant visit my website : the company tfgamesite
ReplyDeletePlease visit my blog🙏🙏🙏🙏🙏
Deleteसंजय ग्रोवर आपको काफी दिनों से पढ़ रहा हूँ। आपके हर आर्टिकल बेमिसाल और तार्किक होते है।
ReplyDeletePlease visit my blog and share your opinion🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
DeletePlease visit my blog and share your opinion🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
ReplyDelete