आजकल सांप्रदायिकता चर्चा में है। किसी न किसी को तो चर्चा में होना है, चलो सांप्रदायिकता ही सही।
मेरी समझ में जिस दिन किसी बच्चे को सिखाया जाता है, ‘माई मम्मी इज़ द बैस्ट’, सांप्रदायिकता शुरु हो जाती है।
जिस दिन कोई कवि अपने श्रोताओं से कहता है कि हरियाणा के जैसे श्रोता मैंने कहीं नहीं देखे, वह सांप्रदायिकता को हवा दे रहा होता है।
जब कोई एंकर जानकारी दे रहा होता है कि फ़लां त्यौहार फ़लाने लोगों का तैयार है, वह सांप्रदायिकता की सिंचाई कर रहा होता है।
जब आप कहते हैं कि हिंदुओं के यहां जाकर गुझिया और मुस्लिम के यहां सेवईयां ज़रुर खाईए, उसी दिन आप गुझियों और सेवईयों को भी हिंदू और मुस्लिम में बदल डालते हैं।
जिस दिन आप कहते हैं कि पंजाब के लोग बहुत बहादुर और जोशीले होते हैं, उस दिन आप ख़ुद ही उनमें गर्व की हवा भर रहे होते हैं।
सांप्रदायिकता आखि़र यही तो है कि एक से ज़्यादा समूह या संप्रदाय आपस में इस बात पर लड़ रहे होते हैं कि मैं श्रेष्ठ हूं ; नहीं मैं महान हूं। मेरे रिश्तेदार, दोस्त और परिचित स्मार्ट और चालाक़ हैं ; नहीं मेरे बेहतर हैं। इस ज़मीन/सुविधा पर ताक़त और संख्या/योग्यता के आधार पर हमारा क़ब्ज़ा बनता है ; नहीं, नहीं, हमारा बनता है।
सांपदायिकता को लेकर सबसे ज़्यादा चिंतित वही लोग दिखाई देते हैं जो सबसे ज़्यादा परिष्किृत तरीकों से उसे फ़ैला रहे/चुके होते हैं। एक तरफ़ वे अपनी सारी सफ़लताओं/उपलब्धियों को भीड़ की संख्या से आंक रहे होते हैं, दूसरी तरफ़ वही लोग इस बात पर हैरान हो रहे होते हैं कि हाय! लोग भीड़ में कैसे बदल जाते हैं !?
-संजय ग्रोवर
मेरी समझ में जिस दिन किसी बच्चे को सिखाया जाता है, ‘माई मम्मी इज़ द बैस्ट’, सांप्रदायिकता शुरु हो जाती है।
जिस दिन कोई कवि अपने श्रोताओं से कहता है कि हरियाणा के जैसे श्रोता मैंने कहीं नहीं देखे, वह सांप्रदायिकता को हवा दे रहा होता है।
जब कोई एंकर जानकारी दे रहा होता है कि फ़लां त्यौहार फ़लाने लोगों का तैयार है, वह सांप्रदायिकता की सिंचाई कर रहा होता है।
जब आप कहते हैं कि हिंदुओं के यहां जाकर गुझिया और मुस्लिम के यहां सेवईयां ज़रुर खाईए, उसी दिन आप गुझियों और सेवईयों को भी हिंदू और मुस्लिम में बदल डालते हैं।
जिस दिन आप कहते हैं कि पंजाब के लोग बहुत बहादुर और जोशीले होते हैं, उस दिन आप ख़ुद ही उनमें गर्व की हवा भर रहे होते हैं।
सांप्रदायिकता आखि़र यही तो है कि एक से ज़्यादा समूह या संप्रदाय आपस में इस बात पर लड़ रहे होते हैं कि मैं श्रेष्ठ हूं ; नहीं मैं महान हूं। मेरे रिश्तेदार, दोस्त और परिचित स्मार्ट और चालाक़ हैं ; नहीं मेरे बेहतर हैं। इस ज़मीन/सुविधा पर ताक़त और संख्या/योग्यता के आधार पर हमारा क़ब्ज़ा बनता है ; नहीं, नहीं, हमारा बनता है।
सांपदायिकता को लेकर सबसे ज़्यादा चिंतित वही लोग दिखाई देते हैं जो सबसे ज़्यादा परिष्किृत तरीकों से उसे फ़ैला रहे/चुके होते हैं। एक तरफ़ वे अपनी सारी सफ़लताओं/उपलब्धियों को भीड़ की संख्या से आंक रहे होते हैं, दूसरी तरफ़ वही लोग इस बात पर हैरान हो रहे होते हैं कि हाय! लोग भीड़ में कैसे बदल जाते हैं !?
-संजय ग्रोवर