हम जब छोटे थे, किसी न किसी स्कूल में पढ़ने जाते थे। मुझे याद आता है वहां कहीं न कहीं दीवारों पर अच्छी-अच्छी बातें लिखी रहतीं थी, मसलन-‘झूठ बोलना पाप है’, ‘सदा सत्य बोलो’, ‘बड़ों का आदर करो’ आदि-आदि। लेकिन बहुत-से बच्चे तो पढ़ते ही नहीं थे। जो पढ़ते भी होंगे उन्हें उससे क्या प्रेरणा मिलती होगी क्योंकि असल जीवन में तो वे स्कूल में ही इसका उल्टा होते देख रहे होते होंगे। विचार के साथ तार्किकता भी होनी चाहिए जो कि एक-दो छोटे वाक्यों में लगभग असंभव है। जैसे कि ‘बड़ों का आदर करो’ मेरी समझ में क़तई अतार्किक बात है। उसपर तुर्रा यह कि कई छात्र जो टीचर को आते देख ‘गुरुजी, नमस्कार’ चिल्लाते थे, उन्हींमें से कई पीठ-पीछे गुरुजी को ग़ाली देने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगाते थे।
मैं कई सालों से जगह-जगह पढ़ता आया हूं कि ‘विचार अमर हैं’, ‘विचार कभी नहीं मरते’ आदि-आदि। ऐसी कई स्थापनाओं पर मन में कभी न कभी शंकाएं उठतीं रहीं हैं, अब चूंकि इंटरनेट जैसा माध्यम उपलब्ध है सो उन शंकाओं पर विचार करने और बांटने में सुविधा हो गई है। आखि़र विचार के न मरने से हमारा तात्पर्य क्या है ? क्योंकि विचार जगह-जगह दीवारों पर लिखे होते हैं ! क्योंकि विचार फ़िल्मों में डायलॉग की तरह इस्तेमाल हो रहे होते हैं ? क्योंकि उनके या उनके प्रकट करनेवाले को कुछ ट्राफ़ियां और पुरस्कार जीतेजी या मरणोपरांत दे दिए जाते हैं ? या कि उनके नाम पर ट्राफ़ियां या पुरस्कार बांटे गए होते हैं ? क्या यह विचारों के जीवित रहने का सबूत है ? एक दुकान जिसपर सामने बड़े-बड़े और सुंदर अक्षरों में लिखा है कि ‘न कुछ साथ लेकर आए थे, न लेकर जाओगे', वहीं दुकानदार ग्राहक की जेब में से सारे पैसे लूट ले रहा है तो क्या हम इसे विचारों का ‘जीवित रहना’ कहेंगे !?
क्या मोहम्मद रफ़ी मार्ग(अगर हो) से गुज़रनेवाले हर आदमी का गला सुरीला हो जाएगा ? मुझे ख़ूब अच्छी तरह याद है कि एक वक़्त में, बस में सफ़र करते हुए, मैं जगह-जगह लिखा देखता कि ‘दहेज लेना-देना जुर्म है’। मगर व्यवहारिक रुप से तब भी इसका उल्टा होता था आज भी होता है जबकि दहेज के खि़लाफ़ सख़्त क़ानून मौजूद हैं। मगर आप यह भी सोचिए कि जिस पेंटर ने यह पेंट किया है उसके लिए यह सिर्फ़ उसका धंधा है, दरअसल वह दहेज का समर्थक है। जिसने लिखवाया है, उसकी मानसिकता भी कुछ अलग होगी, लगता तो नहीं है। जो इसे पढ़ रहा है वह भी टाइम पास कर रहा है। वह इसे कभी ठीक से पढ़ नहीं पाएगा क्योंकि इससे पहले जो व्यवहारिक पढ़ाई उसने पढ़ रखी है वह इससे उलट है। या तो वह दुनियादारी निभा ले या विचार आज़मा ले। और हर किसीको दुनियादारी बड़ी प्यारी है। हां, जिस दिन यह विचार बल्कि विचार करना दुनियादारी का हिस्सा बन जाएगा, उस दिन ज़रुर कुछ संभावना पैदा हो सकती है। वह तभी हो सकता है जब एक-एक व्यक्ति नाम, मशहूरी, टीवी कवरेज आदि-आदि की चिंता किए बिना विचार को व्यक्तिगत जीवन में आज़माए।
जैसे जगह-जगह महात्मा गांधी व अन्य महापुरुषों की तस्वीरें लगीं हैं ऐसे ही विचार भी टंगे हैं। वे मर गए हैं और लोग उनकी तस्वीरों पर माला चढ़ाकर ख़ुश हो रहे हैं।
विचारों के मरते चले जाने पर भी ज़रा विचार करें।
-संजय ग्रोवर
08-01-2016